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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिी टीका अ० २ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् दशविधं स्थानाङ्गस्य दशमस्थाने प्रोक्तम् । तथाहि “जगश्य १ सम्मय २ ठवणा ३, नाम ४ रूवे ५ पडुच्च सच्चे ६ य। ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे य १० ॥ छाया-जनपद १ संमत २ स्थापना ३ नाम ४ रूपं ५ प्रतीत्यसत्यं ६ च । व्यवहार ७ भाव ८ योगः ९ दशममौपम्यसत्यं च १० ॥ इति।। तत्र-जनपदसत्यम्-यथा बङ्गदेशे गौरिति 'गाभी' शब्देन व्यपदिश्यते ॥ १ ॥ संमतसत्यम्-संमतं च तत्सत्यं च-संमतसत्यम् = लोकसंमत्या प्रसिद्धं, तथाहि-कुमुदकुघलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पङ्कसंभवे सर्वसम्मतमरविन्दमेव पङ्कजम् ।। २ ।। स्थापनासत्यम्- यथा-एक संख्यायाः पुरतो विन्दुद्वयस्थापनेन है। यह (दसविहं ) दश प्रकार होता है, इसके ये दश प्रकार स्थानांम के दशम स्थान में इस प्रकार कहे हैं जनपदसत्य १, संमतसत्य २, स्थापनासत्य ३, नामसत्य ४, रूपसत्य ५, प्रतीत्यसत्य ६, व्यवहारसत्य ७, भावसत्य ८, योगसत्य ९, और उपमासत्य १०॥ तत्तद्देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जो शब्द रूढ हो रहा है वह जनपदसत्य है जैसे वंगाल में गाय को “ गाभी" कहते हैं। अतः " गाभी' यह शब्द जनपदसत्य है १। बहुत मनुष्यों को समति से जो शब्द साधारण में रूढ़ हो उसे सम्मतिलत्य कहते हैं, जैसे कुमुद, कुवलय, उत्पल तथा तामरस इनमें पंक संभावता की समानता होने पर भी सर्वसम्मति से अरविन्द को ही पंकज मानना, अर्थात् कुवलय, उत्पल आदि सब ही पंकज हैं फिर भी पंकज शब्द अरविन्द में ही रूढ़ हुआ है। इसलिये अरविन्द को ही पंकज मानना यह सम्मत. પ્રકારનું છે. તેના તે દશ પ્રકાર સ્થાનાંગનાં દશમાં સ્થાનમાં આ પ્રમાણે કહેલ છે. (१) न५४ सत्य (२) संमत सत्य (3) स्थापना सत्य (४) नामसत्य (५) ३५सत्य (६) प्रतात्य सत्य (७) व्यवहार सत्य (८) मावसत्य (6) यो सत्य भने (१०) उपभासत्य. (૧) દેશવાસી મનુષ્યના વ્યવહારમાં જે શબ્દ રૂઢ થઈ ગયા હોય તે દેશવાસી માટે જનપદ સત્ય છે. જેમકે ગાયને બંગાળામાં “ગાશી ” કહે छ तेथी “ गाभी” श६ १०५४ सत्य छ. (२) पधारे भासोनी संभतिथी જે શ દ સાધારણ રીતે રૂઢ થાય તે સંમતિ સત્ય કહેવાય છે. જેમકે કુમુદ કુવલય, ઉત્પલ, તથા તામરસ તેઓમાં પંક સંભવતાની સમાનતા હોવા છતાં પણ અરવિંદને જ પંકજ માનવું, એટલે કે કુવલય, ઉત્પલ, આદિ બધાં પંકજ છે છતાં પણ પંકજ શબ્દ અરવિંદમાં જ રૂઢ થયેલ છે. તે કારણે અરવિંદને જ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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