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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्वात् ५०, 'वीसाओ' विश्वासःमाणिनां प्रतीतिजनकत्वात् , यद्वा-प्राणिप्राणस्याविरुद्धसमाचरणलक्षणः ५१, अभओ' अभया-निर्भयहेतुत्वात् ५०, 'सबस्सवि. अमाधाओ' सर्वस्यापि सकलपाणिगणस्य अमाघातः-मा लक्ष्मीः, सा च द्वेधाधनलक्ष्मीः प्राणलक्ष्मीश्च, तस्या घातो हननं माघातो, न माघातः अमाघात:अमारिः स्वपदद्वारा प्राणिनां प्राणवाणकरणात् ५४, 'चोक्ख' चोक्षा पवित्रादपि पवित्रा-कर्ममलापहारकत्वात् ५४, पवित्ता' पवित्रा आत्मनैर्महेलतुत्वात् ५५, प्रमाद है ४९। पर प्राणियों को यह तृप्ति का कारण होतीहै इसलिये इसकानाम ( अस्साओ) आश्वास है ५० । प्राणियों में यह प्रतीति उत्पन्न करा देती है इसलिये इसका नाम (वीसाओ) विश्वास है। अथवा प्राणियों के प्राणों के विरुद्ध आचरण इसमें नहीं होता है इसलिये भी इसका नाम विश्वास है ५१ । प्राणियो को यह भयरहित बनो देनी है। इसलिये निर्भय की हेतु होने से इसका नाम अभय है ५२ । दूसरे जीवों की मा-धन-लक्ष्मी और प्राणरूपलक्ष्मी का इसमें घात नहीं होता है इस लिये इसका नाम ( अमाघाय) अमाघात है। मा शब्द का अर्थ लक्ष्मी होता है-धन रूप लक्ष्मी और प्रागरूप लक्ष्मी के भेद से यह लक्ष्मी दो प्रकार की होती है । अहिंसा से इन दोनों का संरक्षण होता है यह घात प्रत्यक्ष है इसलिये इसका नाम अमाघात है ५३। यह अहिंसा पवित्र वस्तुओं से भी है अतिपवित्र है इसलिये इसका नाम (चोक्खा) चोक्षा है ५४ । इससे आत्मा के ऊपर जमा हुआ अनादिकाल का मैल-विभाव परिणति दूर हो जाती है। अतःआत्मा निर्मल-अपने स्वरूप में मग्न-हो प्राणीमामा ते प्रताति उत्पन्न ४२ छे, तेथी तेनु नाम "वीसाओ" विश्वास છે. અથવા પ્રાણીઓનાં પ્રાણોનાં વિરૂદ્ધનું આચરણ તેમાં થતું નથી, તેથી પણ तेनु नाम विश्वास छ. (५१) प्रासाने ते लय २डित 3रे : . तथा निયતાને માટે કારણભૂત હેવાથી તેનું નામ “એમ” છે. (૫૨) બીજાં જેની મા-ધન-લક્ષ્મી અને પ્રાણરૂપ લક્ષ્મીને તેમાં ઘાત થતું નથી, તેથી તેનું નામ " अमाघाय" अमाघात छ. 'मा' शन्नो मर्थ सभी थाय छ-चन३५ લક્ષ્મી અને પ્રાણરૂપ લક્ષમી, એ રીતે તેના બે પ્રકાર પડે છે. અહિંસાને એ બંનેનું સરક્ષણ થાય છે તે વાત પ્રત્યક્ષ છે. (૫૩) તે અહિંસા પવિત્ર વસ્તુઓ ४२i ५ पधारे पवित्र छ, तथा तेनु नाम " चोक्खा " चोक्षा छ. (५४) તેનાથી આત્મા ઉપર જામેલો અનાદિકાળને મેલ-વિભાવ પરિણતિ-દૂર થઈ જાય છે, તેથી આત્મા પિતાનાં નિર્મળ સ્વરૂપમાં મગ્ન થઈ જાય છે. તે કારણે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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