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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० २ परिग्रहस्य त्रिंशन्नामनिरूपणम् संस्तवः परिचयः-परिचयकारणत्वात् २२, 'अगुत्ती' अगुप्तिः तृष्णाया अगोपनम् २३, 'आयाभो' आयासः =दुःखम् , आयामहेतुत्वात्परिग्रहोऽ प्यायासःउक्तः २४, ‘अविओगो' अवियोगः-धनादरपरित्यागः२५ 'अमुत्ती' अमुक्तिः अनिलेभिता २६, 'तहा ' तृष्णा-धनादेराकाङ्क्षा २७, 'अणत्थगो' अनर्थकःअनर्थकारणत्वात् २८, 'आसत्थी' आसक्तिः-मूर्छा, तत्कारणत्वात् २९, में लगा रहता है इसलिये इसका नाम प्रविस्तर है २० । परिग्रह अनेक अनर्थों का कारण रहता है इसलिये इसका नाम अनर्थ है २१ । परिग्रही जीवको अनेक जीवों के साथ संस्तवपरिचय रहता है। इसलिये परिचय का कारण होने से इसका नाम संस्तव है २२ । इसमें तृष्णा का गोपन नहीं होता है-अतः इसका नाम अगुप्ति है २३ । परिग्रह की ज्वाला में जलते हुए जीव को बहुत अधिक आयासों दुःखों को भोगना पड़ता है इसलिये उनका हेतु होने से परिग्रह का नाम भी आयास है २४ । परिग्रही जीव में लोभ की अधिक से अधिक मात्रा होने के कारण वह धनादिक का परित्याग दान आदि सत्कृत्यों में भी नहीं कर सकता है इसलिये इसका नाम अवियोग है २५ । इस परिग्रही जीव में निर्लोभता नहीं होती है इसलिये इसका नाम अमुक्ति है २६ । धनादिक के आगमन-आय की आकांक्षा परिग्रही जीव के सदाकाल रहती है इस लिये इसका नाम तृष्णा है २७ । परिग्रह अनेक अनर्थों का कारण है इसलिये इसका नाम अनर्थक है २८ । मूर्छा का कारण होने से इसका विस्तार ४२१ामा वाग्य! २ छ, छेथी तेनु नाम 'प्रविस्तार' छे. (२१) परिअ मने मार्थानु २९ भने छे, तेथी तेनु नाम 'अनर्थ' छ. (२२) परियडी पनी मने अपनी साथे ' संस्तव' पश्यिय यतो २७ छ, तथा पश्यियनु ४।२९ डावाथी तेनुं नाम 'संस्तव ' छ. (२३) ते तृष्णानुं गोपन थतुं नथी, तथा तेनुं नाम ' अगुप्ति' छे. (२४) परियडनी //Hi ormal જીને ઘણું વધારે આયાસો- દર ભેગવવા પડે છે. તેથી તે આયાસના ४।२६४३५ पाथी पश्यितुं नाम ५९] " आयास” छे. (२५) परियडी જીમાં લેભની માત્રા વધારેમાં વધારે હોવાને કારણે તેઓ દાન આદિ सत्कृत्यामा धननी परित्याग ४२ शता नथी. तेथीतेनुं नाम 'अवियोग' छे. (२६) ते परियडी मा निमिता हाती नथी, तेथी तेनुं नाम 'अमुक्ति' છે. (૨૭) ધનાદિ પદાર્થો મેળવવાની આકાંક્ષા પરિગ્રહી જીવને સદાકાળ રહે છે, तथा तेनु नाम तृष्णा ' छ. (२८) पश्यि भने मनाने भाटे ४।२४३५ डाय छ, तेथी तेनु नाम 'अनर्थक ' छे. (२८) भू- 'मासति' नु ॥२५ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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