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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे -त्याज्यम् , 'उडनश्यतिरियतिलोकपइटाणं' ऊर्ध्व नरकतिर्यकत्रिलोकप्रतिष्ठानम् ऊर्चलोको नरकलोकस्तिर्यग्लोक श्चेत्येतद्रूपं यत् त्रैलोक्यं तत्र प्रतिष्ठानम् =अवस्थिति येन मैथुनेन यत्तत्तथा लोकत्रये चतुर्गतिभ्रामकमित्यर्थः, तथा 'जरा मरणरोगसोगबहुलं ' जन्मजरामरणरोगशोकाधनन्तदुःखसम्भुतम् , ' वध. बंधविधायदुविधायं ' वधबन्धविघातदुर्विघातम्-तत्र वधः हननं बन्धः रज्ज्वा. दिभिः संयमनं, विधाता मारणं चेत्येतैः दुविधातः=दुस्सह्यो विघातो-दुःखं यस्मिन् तत्तथा बधबन्धादिविविधदुःखजनकमित्यर्थः, 'दसणचरित्तमोहस्सहेउभूयं ' दर्शनचारित्रमोहस्य हेतुभूतं-दर्शनमोहस्य चारित्रमोहस्य च बन्धकारणम्-इदमब्रह्मजिनवचने शङ्काकासादिदोषोद्भावकत्वाद् दर्शनमोहस्य कारण, चारित्रभेदजनकत्वाच्चारित्रमोहस्येति भावः । तथा 'चिरपचियं ' चिरपरिचितं= णजणवज्जणिज्ज) जो साधुजन हैं वे तो इस कृत्य को सदा त्याज्य ही मानते हैं (उड नरयतिरियति लोकपड्डाणं ) इस मैथुन सेवन से जीवका परिभ्रमण उर्वलोक मध्यलोक एवं पाताललोक रूप त्रैलोक्य में होता हैं। (जरामरण रोगसोगमूलं ) यह कम जन्म, जरा, मरण, शोक आदि अनंत दुःखोंसे भरा हुआ है। (वधबंधविघायदुन्विघायं) इसमें वध, बंधन एवं मरण जन्य दुः सह दुःख भरे हुए हैं। (दसणचरित्तमो हस्स हेउभूयं ) दर्शन मोहनीय तथा चारित्रमोहनीय का यह हेतुभूत है। अर्थात-पह अब्रह्म जिनवचन में शंका कांक्षा आदि दोषों का जनक होने के कारण दर्शन मोहका और चारित्रका विनाशक होने से चारित्र मोहनीय कर्म के बंध को कारण माना गया है । (चिरपरिचियं) जीवों के साथ इसका परिचय चिरकाल से जन्म जन्मान्तरों में आसेवित होते रहने के कारण चला आ रहा है । इसीलिये ( अणुगयं ) यह " सुयणजणवज्जणिज्ज" पy सतपुरुषो तो मे इत्यने सहा त्य/qi योग्य भाने छ, ' उड्डनरयतिरियतिलोकपइट्टाणं" से भैथुनना सेवनयी सपने ઉર્વક અને પાતાળલેક, એ રીતે ત્રણલેકમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, "जरामरणरोगसोगमूलं " ते ४ सन्म, २१, भ२९, ४ मा मनात माथी मरेलु छ, “ वधबंधविधायदुविघायं " तेभा १५, ५धन भने भ२९ गन्य सह मे। लरेसा छ, “दसणचरित मोहस्स हेउभूय" ते शन મેહનીય તથા ચારિત્ર મોહનીયના કારણરૂપ છે, એટલે કે તે બ્રહ્મ જિનવચનમાં શંકા કાંક્ષા આદિનું જનક હોવાથી દર્શન મેહનીય અને ચારિત્રનું विनाश पाथी यात्रि भाडनीय मन धनुं ।२५ मनायु छ — चिरपरिचियं" ते भान्तथा सेवा पाने २ तेनो योनी सथे। For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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