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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनीटीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् वैरघौ रैः- वधो धातः बन्धा-निगड़ादि बन्धः, 'अभिओगो' अभियोग:-अपराधारोपः, वैरघोरः घोरशत्रुता; एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, एभ्यः ‘पमुच्चंति' प्रमुच्यन्ते, च= पुनः 'अमित्तमज्झाहिं' अमित्रमध्यात्-शत्रुमध्यात्= अणहा य' अनघाश्च-अक्षतशरीराश्च, 'निइंति' निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति । उक्तमपि " सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम् । नासिश्छिनत्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी ॥ इति। तथा 'देवयाओय' देवताश्च 'सच्चवयणे रयाणं' सत्यलचने रतानां= सत्यवादिनां मणुष्याणां 'सादेव्याणि' सादिव्यानि-सांनिध्यानि करेंति' कुर्वन्ति। वध-धात, बंध निगड़ (वेडी)आदिबंधन अभियोग अपराधारोप, एवं घोर शत्रुता. इनसे भी बच जाते हैं। (अमित्तमझाहिणिइंति अणहा य सच्चवाई ) यदि कदाचित् ये शत्रुओं के बीच में आ भी जावें तो भी शत्रु उनका कुछ भी विगाड नहीं कर पाते हैं-उनके बीच से वे अनअक्षत शरीर ही निकल आते हैं। कहा भी है "सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम्। नासिछिनत्ति सत्येन, सत्यान्न दशते फणी॥" सत्यवादी पुरुषों के समक्ष अग्नि शीतल हो जाती है, अगाधसमुद्र भी स्थल जैसा हो जाता है, तलवार की धार भोथरी हो जाती है और फणी-सर्प उसे डस नहीं पाता है। ___ अधिक क्या कहा जाय (सच्चवयणे रयाणं) जो सत्यवचन में रत होते हैं उन सत्यवादी मनुष्यों का (देवयाओ य) देवता (सादि“वह बंधाभिओगवेरघोरेहिं पमुंचंति य” १५-धात, मध-नि1 मा मधन, અભિગ-અપરાધારેપ, અને ઘેર શત્રુતા એ બધાથી પણ બચી જાય છે " अभित्तमज्झाहिणिइति अणहाय सञ्चवाई " हाय ते शत्रुमानी १-ये यात्री જાય તે પણ શત્રુ તેને કાંઈ ઈજા કરી શકતા નથી–તેમની વચ્ચેથી તે અક્ષત શરીરે જ બહાર નીકળી જાય છે. કહ્યું પણ છે– __" सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम् । नासिच्छिनत्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी॥" સત્યવાદી પુરુષે પાસે અગ્નિ શીતળ થઈ જાય છે, અગાધ સમુદ્ર પણ સ્થળ સમાન થઈ જાય છે, તલવારની ધાર બૂઠી થઈ જાય છે અને સર્વે તેને ડંસ દઈ શકતું નથી. वधु शुई " सचवयणे रयाणं " सत्य क्यानभा सीन २ छ ते सत्यवाही मनुष्यानु "देवयाओय" देवता “ सादिव्वाणि करेंति " सांनिध्य प्र८३ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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