SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० ३ सू० १६ चौराः किं फलं लभन्ते ? पापिनः ‘खरकरसएहिं ताढिज्जमाणदेहा' खरकरशतैस्ताड्यभानदेशः अतिचिकणपाषाणभृतचर्मकोशशतैः 'कंकरभरे चाबुक' इति भाषाप्रसिद्धैः ताडयमानदेहा -ताडयमानशरीराः तथा 'शातिगतरनारिसंपरिचुडा' वातिक नरनारीसम्परिवृताः तत्र-वातिकैः-उच्छृालैः नरैनारीभिश्च संपरिद्रताः-युक्ताः मर्यादावर्जितनरनारीवृन्दवेष्टिता इत्यधः, पिच्छिज्जता य नागरजणेण ' नागरजनेन दृष्टुं समागतेन प्रेक्ष्यमानाः 'वज्झनेवस्थिया' वध्यनेपथ्यिका योग्यं नेपथ्यं येषां ते वध नेपयिकाः परिधृतघातपत्रवेपाः, 'गरमझेग' नगरमध्येन=पुरमध्यभागमार्गेण ‘पणिज्जति ' प्रणीयन्ते नीयन्ते 'किविणकलुणा' कृपणकरुणाः कृपणेष्वपि करुणा अतिदीना इत्यर्थः, 'अत्तागा' अत्राणा-त्राणवर्जिताः अनर्थनिवारकाभावात् 'असरणा' अशरणाः शरणहीना:-योगक्षेमकारिरहितत्वात् अतएव 'अगाहा ' अनाथा: नायवर्जिताः 'अबंधया' अवान्धवाःबान्धवरहिताः तथा ये बड़े अधिक पापी होते हैं। (खरकरलएहि ) अतिविकण पाषाणखंडों से भरे हुए ऐसे सैकड़ों कोड़ों की (तालिजमाणदेशा) इनके शरीर पर मारपड़ती है। तथा (वातिगमरनारिसंपरिचडा) मर्यादा वर्जित नरनारि गण से वेष्टित रहते हैं । (पिच्छिज्जता य नागरजणेण ) इन्हें देखने के लिये नागरिकजन आते हैं। (बझ नेवत्थिया) इनकी वेशभूषा वध्ययोग्य होती है । (णगरमझेण पणिज्जति ) राजपुरुष इन्हें नगर के भीतर से होकर ही निकालते हैं। (शिविषालुणा ) उस समय ये दीनों से भी अतिदीन होते हैं (अत्ताणा) अनर्थ को निवारण करने वाला कोई नहीं होने से इनकी कोई रक्षा करने वाला नहीं होता है, इसलिये ये अत्राण होते हैं, ( असरणा) योग, क्षेमकारी पुरुष से रहित होने के कारण ये अशरण-शरण हीन होते हैं। (अणाहा) अनाथ रक्षकके अभाव से ये अनाथ होते हैं, तथा (अवंधवा ) बंधुओं के अभाव से शवे ।", "पावा" ते प पायी जाय छ. "खरकरमप”ि भतिशय थि! पत्थना १४थी लरेसा ३४१२७मान। "तालिजमाणदेहा" तभनां शरी२ ५२ भा२ ५४ छ. तथा "वातिगनरनारिसंपरिखडा" माह २डित श्री पुरुषोना समूडथी तेमा वीट येस२७ छ. "पिच्छिज्जेता य नागरजणेण" तेमने नवाने भाट नागरि२०२!! ४२ 2. "वज्झनेवत्थिया" तेन पाषा वध्याने याय यछे. " णगरमझेण पणिज्जति" २२०० पुरुषो तेमने नमनी पथ्ये २७२ स य छे. "किविण कलुणा" त्यारे सीने भतिशय हीन४२मनुलवे छ. "अच्चाणा" ते યાતનામાંથી તેમને બચાવનાર કેઈ ન હોવાથી તે લેકે રાત્રાના રક્ષણવગરના હેયछे, " असरणा” भने । २।५ना 15 पुरुष न पाथी ते २५२२६१ डाय छे. "अणाहा" २६४ने असावे. तस। मनाथ जय छ, “अबंधवा" प्र.४३ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy