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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ક૭૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वा, विभक्तयः स्वादयस्तिवादयश्च, वर्णाः = कवर्गादयः, एभिर्युक्तं ' तिकलं' त्रैकाल्यं त्रिकालविषय 'दसविहं पि' दशविधमपि जनपदादिरूपं 'सच्चं' सत्यं वक्तव्यम् । तथा यत्सत्यं 'जह ' यथा येन प्रकारेण 'भणिय' भणितम् उच्चारित ' तह य ' तथा च तेनैव प्रकारेण 'कम्मुगा' कर्मणापि-कार्येणापि परिणतं ' होइ' भवति, तत्सत्यं वक्तव्यमिति भावः, तथा-'दुवालसविहा' द्वादशविधा प्राकृत संस्कृतमागधपिशाचसौरसेनोपभ्रंशभेदातू पइविधा, सा पुनः गद्यपद्यभेदाद् द्विविधेति द्वादशविधा 'भासा' भाषा होइ' भवति, तथा'वयणं पि य' वचनमपि च 'होई' भवति 'सोलसविहं' पोडशविधत्वमेवं विज्ञेयम्अकार आदि शब्द, अथवा षडज आदि स्वर स्वर कहलाते हैं। 'सु, औ, जस, आदि विभक्तियां तथा 'तिए, तस, झी' आदि प्रत्यय ये सव विभक्तियां कहलाती हैं, और कवर्ग आदि वर्ग कहलाते हैं। (जहभणियं तह य कम्मुणा होइ) तथा जो सत्य जिस प्रकार से कहा गया है वह सत्य उसी प्रकार से कार्य से भी परिणत हो जाता है ऐसा सत्य बोलना चाहिये। तात्पर्य इसका यह है कि जिस सत्य को, बोलने वाला व्यक्ति कार्य रूप में परिणत कर सके ऐसा सत्य बोलना चाहिये । (दुवालसविहा होइ भासा) भाषा वारह प्रकार की होता है-वह इस प्रकार से प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, सौरसेनी और अपभ्रंश । यह छहों प्रकार की भाषा गद्य और पद्य के भेद से बारह प्रकार की हो जाती है। (वयणं पिय होइ सोलसविहं) वचन के सोलह प्रकार होते हैं, वे इस प्रकार से हैं७२ मा २७-अथवा षड्ज याहि १२ने २१२ ४ छ, “ सु, औ, जस्” मा विमतियो तथा “तिप् तर झी" या प्रत्यय ये सौने विमतियो छ छ; ( सुरातीमा मे, ने, थी, ना, नी, नू, ना, मां 2 विमतिना प्रत्यया छ) सने 'क ख' मादि वर्गा उपाय छ "जहमणियं तहय कम्मुणा होइ" तथा रे सत्य रे रे वायु डाय ते सत्य ते ४ ॥२ કાર્યમાં પણ પરિણમતું હોય તેવું સત્ય બોલવું જોઈએ, તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સત્યને બેલનાર વ્યક્તિ કાર્ય રૂપે અમલમાં મૂકી શકે તેવું સત્ય मात , “दुवालसुविंहा होइ भासा " भाषा मा२ जानी जय छ ते मा प्रमाणे -प्राकृत, २४त, भागधी, पैशाची, सौरसे-1, मने अपभ्रश આ છ પ્રકારની ભાષા ગદ્ય અને પદ્યના ભેદથી બાર પ્રકારની થઈ જાય છે, "वयणं पिय होइ सोलसविह" क्यनना सो ५४२ डाय छे, ते नीय प्रमाणे छे. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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