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सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् पदं सुबन्तं तिङन्तं च-यथा--' जिनः भवति' इत्यादि, हेतुःसाध्याविनाभूतत्वलक्षणः, यथा-' पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमा' दित्यादि, यौगिकं योगनिष्पन्नं पदं 'पद्मनाभो नीलकान्तः' इत्यादि-उणादिः उणादिप्रत्ययनिष्पन्नं पदम् , 'करोति चित्रकार्यमिति कारू:' सानो तिस्वधर-कार्यमिति सोधुः' इत्यादि. क्रियाविधानं = कृदन्तप्रत्ययनिष्पन्नं 'पाठकः, पाचकः, पाकः' इत्यादिरूपं पदम् , धातवः क्रियावाचिनो वादयः, स्वरा= अकारादयः षड्जादयः, अति समीपता होने पर उनके मेल से जो ध्वनि में विकार होता है उसका नाम संधि है-जैसे 'श्रावकः अत्र' ऐसी स्थिति में 'श्रावकोऽत्र ' ऐसी संधि होती है, इस संधि का नाम पूर्वरूप संधि है। सुबन्त और तिङ्गन्त को पद कहते हैं, जैसे-'जिनः' यह सुबन्त पद है ओर · भवति' यह तिङन्त पद है। जो साध्य के साथ अविनाभाव संबंध से बंधा होता है उसका नाम हेतु है, जैसे धूमवाला होने से यह पर्वत अग्निवाला है, यहां पर साध्य-अग्नि है और उसके बिना नहीं होने वाला धूम है। योग से जो शब्द निष्पन्न होते हैं वे यौगिक शब्द हैं, जैसे पद्मनाभ, नीलकान्त आदि शब्द । उणादि प्रत्यय से जो शब्द बनते हैं वे उणादि हैं, जैसे-कारु (शिल्पी) साधु आदि शब्द । धातु के अन्त में प्रत्यय लगाकर जो शब्द बनते हैं वे कृदन्त हैं, जैसे-पाठक, पाचक, पाक आदि शब्द । क्रिया के बाचक जो भू आदि शब्द हैं वे धातु कहलाते हैं। दूसरे वर्णो की सहायता के विना जिनका उच्चारण होता है ऐसे સમીપતા હોય ત્યારે તેમના જોડાણથી દવનિમાં જે વિકાર ઉત્પન્ન થાય છે तेने सन्धि छ. म " श्रावकः अत्र" नी “ श्रावकोऽत्र" से प्रा. २नी सन्धि थाय छे, म सन्धिने पूर्व ३५ सन्धि ४ छ. सुबन्त भने तिङ्गन्त ने ५४ ४ छ, 'जिनः " ते सुमन्त ५४ छ भने " भवति" ते તિગન્ત પદ , જે સાધ્યની સાથે અવિનાભાવ સબંધથી બંધાયેલ હોય છે. તેને હેતુ કહે છે. જેમ કે ધૂમવાળે હોવાથી આ પર્વત અગ્નિવાળે છે, અહીં સાધ્ય અગ્નિ છે, અને તેના વિના ન પેદા થનાર ધુમાડે છે. ગણી જે શબ્દ બને છે તેમને યૌગિક શબ્દ કહે છે. જેમ કે પદ્મનાભ, નીલકાन्त, माहि यौगि शो छ " उणादि" प्रत्यययी २ शाही पने छ ते " उणादि ” उपाय छे, म ४१२ (शिल्पी) साधु मा श६ धातुने અને પ્રત્યય લગાડીને જે શબ્દ બને છે તેને કૃદન્ત કહે છે, જેમકે પાઠક, પાચક. પાક આદિ શબ્દ કિયાના વાચક “મૂ” આદિ જે શબ્દો છે તેમને ધાતુ કહે છે. બીજાં વર્ષોની મદદ વિના જેનું ઉચ્ચારણ થાય છે એવાં “a”
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