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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका २०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहारः बद्ध = स्वात्मप्रदेशेषु संश्लेषितं, निकाचितं दृढ़त्तरं बद्धम् - उपशमनादिकरणानामविषयीकृतं कर्म यैस्ते तथोक्ताः, नराः गुरुणा बहुविधम् अनेकमकारम् विविधहेतुदृष्टान्तपूर्वकम् अनुशिष्टमपि = उपदिष्टमपिध में श्रुतचारित्रलक्षणं श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति न च समाचरन्ति ॥ ३ ॥ ५४२ " जे ' ये मनुष्याः सर्वदुःखानां = जन्मजरामरणादिरूपाणां 'विरेवणं 'विरेचनं=कोष्ठशुद्धिरूपविरेचनभिवविरेचनं निवारकं ' गुणमहुरं ' गुणमधुरं गुणैः= आत्मविकासिगुणैर्मधुरं मिष्टम्, एत्तादृशं 'जिणवयणं 'जिनवचनं वचनं - जिनवचनरूपम् ' आसहं ' औषधं 'मुहा ' मुधा = उपकारबुद्ध्या ' जं ' यत् ' नेच्छइ' नेच्छन्ति =नपिन्ति ते ' किं काउं ' किं कर्त्तुं 'सका ' शक्ता: =समर्था भवन्ति यादृष्टि होते हैं विवेक बुद्धि से विहीन होते हैं तथा (बद्धनिकाइयकम्मा) निचित कर्मों का बंध किए हुए होते हैं, ऐसे मनुष्य बहुविहं (अणुदिपि) गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदिसे बहुत प्रकार से सामझाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (मं) धर्मको (सुगंति) सुन तो लेते हैं। परन्तु (नय करेंति) उसे अपने आचरण में नहीं लाते हैं ||३|| रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्थ औषधि का पान नहीं करते हैं तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं इसी तरह ( ये ) जो संसारी प्राणी (सव्व दुक्खाण विरेयणं (जरा, मरण आदि समस्त दुःखों को जड़मूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमदुर) आत्मविकासी गुगो से मीठे ऐसे (जिगवणं ) जिनेन्द्र प्रभु के वचन रूप (ओसह ) औषध को (मुहा) उपकार बुद्धि से ( पाउं नेच्छइ ) नहीं पाते हैं वे ( कि काउंसक ) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं । For Private And Personal Use Only << " जे नरा मिच्छादिट्टी अबुद्धीया " के मनुष्यो मिथ्यादृष्टि बाजा होय छे, विवेकुमुद्धि विनाना होय छे तथा " बद्धनिकाइयकम्मा " निश्ायित अर्माना अंध वाणा होय छे, मेवा मनुष्यो " बहुविहं अणुदिट्ठपि " गुरुभो દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દૃષ્ટાંતો આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छतां श्रुतथास्त्रि३५ " धम्मं " धर्मनु “ सुणंति " श्रवणु तो मेरे छे, पशु नय करेंति " पशु तेने पोताना साथमा उतरता नथी ॥३॥ જેમ રાગી માણસ રોગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે તે તેને રોગ દૂર કરવાને શક્તિમાન થતા નથી, એ જ પ્રમાણે “ચે ” જે સંસારી " सव्वदुक्खाणविरेयणं " ४रा, भरण आदि सगणां हुने निक्षूण डरनार तथा " गुणमहर" आत्मविअसी गुणोथी मधुर मेषां " जिणवयणं " किनेन्द्र भगवाननां पथन३५ “ ओसहं " औषधने "मुहा " ७५२ युद्धिथी “ पाउमच्छर " आप्त ईश्ता नथी, तो "कि काउंसका " परवाने समर्थ
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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