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सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरूपणम् ७०९ हासं, अण्णापणजणियं च होज्ज हासं, अपणोण्णगमणं च होज मम्म, अण्णोण्णगमणं च होज्ज कम्मं कंदप्पभिओगगमणं च होज्ज हासं, आसुरियं किब्बिसत्तणं च जणेज्ज हासं, तम्हा हासं न सेवियध्वं । एवं मोणेण य भाविओ भवइ. अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो ॥ सू० ८ ॥
टीका-'पंचमं ' पश्चमी भावनामाह-' हास' हास्यं नोकषायमोहोदयासनिमित्तमनिमित्तं वा विवृतवर्णपुरस्सरं मुखव्यादान हास्यम् , न 'सेवियब्वं' सेवितव्यम् । किमर्थ न सेवितव्यम् ? इत्याह-'हासइत्ता' हासयितारः-परिहासकारिणः 'अलियाई' अलिकानि सद्भूतार्थगोपनरूपाणि 'असंतगाई' असत्कानि=
अब सूत्रकार पंचमी मौन भावना को कहते हैं-'पंचम , इत्यादि ।
टीकार्थ-(पंचमं ) पांचवी मौन भावना इस प्रकार है। (हासं न सेवियत्वं ) इस भावना में हास्य के सेवन का परित्याग कर दिया जाता है । जब जीव को हास्यनो कषाक मोह का उद्य होता है तब वह हास्य का निमित्त मिले अथवा न भी मिले तो भी वह हीही करता हुआ हँसने लग जाता है । हँसते समय उसका मुख खुल जाता हैं दांत स्पष्ट दिखलाइ देने लगते है। संयमी जन को इस हास्य का सेवन नहीं करना चाहिये । क्यों कि (हासइत्ता) जो परिहास करने वाले व्यक्ति होते हैं वे ( अलिअई असंतगाई जंपंति ) सद्भूत
ये सूत्रा२ पायमी मौनमा मत है-" पंचमं " त्याह
eltथ - पंचमं” पांयमी भौनसावन मा प्रमाणे छे–“हासं न सेवियब्वं ” भावनामा स्यना परित्या॥ ४२राय छे. न्यारे अपने 'हास्यनोकषाय' भाडनी य थाय छे त्यारे ते हास्यतुं निमित्त भणे न भणे છતાં પણ તે “હી-હી” કરતે હંસવા મંડી જાય છે. હસતી વખતે તેનું મુખ ઉઘડી જાય છે અને દાંત સ્પષ્ટ રીતે દેખાય છે. સંયમી જને આ હાસ્યનું सेवन ४२ मे नही २५ है “ हासइत्ता " परिडास ४२॥२ व्यति डाय छे ते “ अलिआई असंतगाई जंपति” यथा मन छुपानार भने
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