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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'स्त्रीकथाविरति'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८११ लासौ-स्त्रीणां शृङ्गारभावजनितौ चेष्टाविशेषौ, ताभ्यां संप्रयुक्ताः,तथा-'हाससिंगारलोइयकहा ' तत्र हासशृङ्गारलौकिककथा हास्यः हास्यस्थायिभावो रसबिशेषः, श्रृङ्गार:-रतिस्थायिभावोरसविशेषः, एतत्प्रधाना या लौकिकीकथा सा तथा, 'मो. हजणणी' मोहजननी-मोहोदीरिका कथा न वक्तव्या । तथा-'आवाहविवाहवरकहावि य' आवाहविहारवरकथापि च आवाह-अभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्य आनयनम् , विवाहः पाणिग्रहणम् , तत्प्रधाना या वरकथा-परिणेतृकथा साऽपि च न वक्तव्या । तथा-' इत्थीणं ' स्त्रीणां ' सुभगदुब्भगकहा ' सुभगदुर्भगकथा="इट नेत्रनासिकाकपालादियुक्ता च स्त्री दुर्भगा भवति" इत्यादिरूपा कथा वा न स्त्रियों के बीच बैठकर कभी नहीं कहना चाहिये, क्यों कि ऐसी कथाओं के कहने में रागभाव की संयुक्तता साधु के जानी जाती है। इससे उसके ब्रह्मचर्यत्रत में दोष आता है। इसी तरह (हाससिंगारलोइयकहा) जो लौकिक कथा हास्य और शृंगाररस प्रधान हो, तथा (मोहजणणी) मोह की जनक हो वह भी नहीं कहना चाहिये । तथा (आवाहविवाह वरकहाविय ) जो कथा नव दंपतियों के आगमन से संबंध रखती हों, अर्थात्-जिस कथा का विषय नव परिणित वधू और वर के संबंध को लिये हुए तथा जिस कथा में विवाह संबंधी चर्चा हो, ऐसी आवाह और विवाह प्रधान वाली वरकथा भी साधु को नहीं कहनी चाहिये । इसी तरह ( इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा ) स्त्रियों संबंधी सुभग दुर्भग कथा भी नहीं कहना चाहिये, अर्थात्-'इस प्रकारके नेत्र, नासिका और कपाल आदिवाली स्त्री सुभग होती है और इस प्रकारके नेत्र. नासिका, યુક્ત હોય તેવી કથાઓ સાધુએ સ્ત્રીઓની વચ્ચે બેસીને કદી પણ કહેવી જોઈએ નહીં, કારણ કે એવી કથાઓ કહેવામાં રાગ ભાવની સંયુક્તતા आधी तय छे. तेथी प्रार्थ ब्रतमा ५ यावी. onय छे. मे ४ रीते "हास सिंगारलोइयकहा " २ सौ ४था हास्य भने ॥२ २१ प्रधान राय, तथा “ मोहजणणी" मोड पहा ४२ना२ जाय, ते ५५ ५वी नये नही तथा “ आवाहविवाहबरकहाविय " * ४था नव पति साना आगमन સાથે સંબંધ ધરાવતી હોય, એટલે કે જે કથાને વિષય નવ પરિણિત વર્ષ અને વરના સંબંધમાં હેય, તથા જે કથામાં વિવાહ સંબંધી ચર્ચા આવતી હેય, એવી આવાહ અને વિવાહ પ્રધાન વર કથા પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ नडी. से प्रमाणे " इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा" श्री. सधी सुमन, વિરળ કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહીં, એટલે કે “આ પ્રકારનાં નેત્ર, નાક અને કપાળવાળી સ્ત્રી સુભગ હોય છે અને આ પ્રકારનાં નેવ, નાક અને For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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