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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० प्रश्नव्याकरणस्ने 'अणारिओ' अनार्य लेच्छ जनसमाचारितस्यात् , 'निग्विणो' निघृणःअविद्यमाना मापा जुगुप्सा यस्मिन् स तथा विधोजनस्तदाचरितत्वात्प्राणवधोऽपि तथा, ' निल्संसो' नृशंस. क्रूरजनाचरितत्वात् ' महमओ' महाभया= महाभयोत्पादकत्वात् , पइमओ' प्रतिभयः सकलपाणिनां भयहेतुत्वात् , 'अइभओ' अतिभयः-मरणान्तमयजनकत्वात् । 'बीहणओ' भापनकः-भयोत्पादकत्वाद, 'तासणओ ' बासनकः-अकस्मात्-हृदयोद्वेगजनकत्वात् , 'अगज्जओ' अन्याय्या न्यायादनपेतः युक्तः न्याय्यः, न न्याय्यः अन्याय्यः,न्यायवर्जितत्वात् , 'उब्वेयणओ' उद्वेगजनकः मर्मपीडाकारकत्वात् 'णिरवयक्खो' निरपेक्षा निर्गता अपेक्षा परप्राणरक्ष विषया यत्र स तथा, 'निद्धम्मो' निर्धमः श्रुतचारित्र धर्मरहितत्वात् , 'निप्पिासो' असमीक्ष्यकारी जनों द्वारा किया गया होने से साहसिक है, ( अणारिओ) म्लेच्छ जनों द्वारा समाचरित होने के कारण अनार्य है। (निग्विणो) इसे करने वाले मनुष्य को पाप के प्रति धृणा नहीं रहती है अतः यह प्राणवध भी निणरूप है ( निम्संसो) क्रूरजन इसे करते रहते हैं इस लिये यह नृशंगरूप है । (महन्मओ) इसे करते समय करनेवालेको महान् भयका कारण होता है इसलिये यह महाभयरूप है । (पइमओ) समस्त प्रामियों को भय झा हेतु होने से यह प्रतिभयरूप है। ( अइभओ) मरणान्तभय का जनक होने से यह अतिभयरूप है । ( बीहणओ) भयका उत्पादक होने से यह भयानक है । ( तासणओ) अकस्मात हृदय में उद्वेग का जनक होने से त्रासनकरूप है ( अणज्जओ) न्यायवर्जित होने से यह अन्यायरूप है । ( उध्वेयणओ) जीवों को उछेग जनक होने से यह उद्वेजकरूप है (गिरवयवो) पर प्राणियों की रक्षा करने की अपेक्षा मसमीक्ष्य खो द्वारा रातो सोपाथी सासि छे, "अणोरिओ" २७ सो द्वारा मायरित हापाथी मनाय . "निग्धिणो" प्रावध ४२ना२ मनुष्यने. पा५ प्रत्ये घृण! यती नथी, तेथी ते प्रावध ५५ निष्|३५ छ, "निस्संसो" दू२ सा ते सेवन रे छे तेथी ते नृशस३५ छ, “ महमओ " ते ४२ती વખતે કરનારને મહાન ભયનું કારણ તે બને છે તેથી તે મહા ભયરૂપ છે. "पइभओ" सजi प्रासाने ते मयना १२६५३५ होपाथी प्रतिभय३५ . "अइभओ" मृत्युना भयनी न होवाथी त अति भय३५ छ. "बीहणओ" अयन पाडोवाथी ते मयान छ. "तासण ओ" इयमा २५४भात द्वेगना Ans डोपाथी ते त्रासन४३५ छ, “ अणज्जओ" न्यायति होवाथी ते अन्याय ३५ छ, “ उव्वेयणओ" मा उद्वेग 4-1 ४२॥२ डोपाथी ते उद्वेग४३५ ३५ छ. " णिरवयस्खो" ५२ प्राणीमान २क्ष ४२वानी अपेक्षाथी २डित For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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