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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ प्रश्नध्याकरणसूत्रे 'अणाहे' अनाथान स्वाम्यभावात् , ' अबंधवे' अबान्धवान-सहायकाभावात् , 'कम्मनिगडबद्धे' कर्मनिगडबद्धान्-कर्मण्येव निगडानि बन्धकत्वात् तैर्बद्धान् कर्मराहित्याभावात् , 'अकुसलपरिणाममंदबुद्धिजणदुबिजाणए' अकुशलपरिणाममन्दबुद्धिजनदुर्विज्ञेयान्-कुशलः तत्त्वातत्वविवेकसम्पन्नः, परिणामः अन्तकरणं येषां ते कुशलपरिणामाः, न कुशलपरिणामाः = अकुशलपरिणामाः आत्मौपम्यदृष्टिविकला इत्यर्थः मन्दा-हिंसाजनितनरकनिगोदाद्यनन्तभवभ्रमणकटुकफलविवेचनशून्या-बुद्धिर्येषां ते मन्दबुद्धयस्ते च जना इति अकुशलपरिये पृथिव्यादि जीव भगकर जा नहीं सकते, इनके आश्रित त्रस जीव यदि भगकर कहीं जावें भी तो कोई ऐसा नहीं है जो इन्हें शरण प्रदान करे अतःशरणदाता के अभाव से ये अशरण हैं । (अणाहे ) कोई इनका स्वामी नहीं है इसलिये अपने स्वामी के अभाव से ये बिचारे अनाथ हैं। (अबंधवे ) इनकी कष्ट में कोई सहायता करने वाला नहीं है इसलिये सहायक के अभाव से ये अवान्धव हैं। (कम्मनिगडबंधे ) उस प्रकार के कर्मों का सद्भाव होने के कारण कर्मरूप निगड-वेडी से ये बंधे हुए हैं। (अकुसल-परिणाम-मंदबुद्धिजणदुन्धिजाणए.) अकुशल परिणाम वाले मंदबुद्धि जनों द्वारा ये दुर्विज्ञेय हैं। तत्त्व और अतत्त्व का विवेक जिनके अन्तःकरण में जगता है वे कुशल परिणाम वाले जीव हैं । इस तरह का कुशल परिणाम जिनका नहीं हैं अर्थात् सब जीवों के ऊपर जिनकी दृष्टि आत्मौपम्यवाली नहीं हैं और जो इस बात को भी नहीं जानते हैं कि हिंसा करने से नरक निगोद आदि अनंत भवों में भ्रमण करने रूप कटुकफल को શકતાં નથી, તેમને આશ્રિત ત્રસજીવ જે ભાગીને કોઈપણ જગ્યાએ જાય તે પણ કોઈ એવું નથી કે જે તેને શરણ આપે, તેથી શરણદાતાને અભાવે તેઓ मशरण छे. "अणाहे" भनी स्वामी नथी, तेथी स्वामीन अभाव तेसा मिया मनाथ छ. “ अबंधवे" ४टभ तभने सहाय ४२ना२ । नथी, तथा सहायाने मसावे तेस। मधq छ. “कम्मनिगडबंधे" ते अनi भनि। सद्भाव थाने १२णे भ३५ डी. ५ तेमा मायेत छ. “अकुसलपरिणाम-मंदबुद्धिजणदुविजाणए" सशस परिणामवा मधुद्धियुत सी દ્વારા તે દુવિય-સમજવું–મુશ્કેલ છે. જેમના અંતઃકરણમાં તત્ત્વ અને અતત્વને વિવેક જાગૃત થાય છે તે કુશલ પરિણામવાળા જીવ છે. આ પ્રકારનું કુલ પરિણામ જેમનું હોતું નથી, એટલે કે સઘળા જીવે ઉપર જેમની દષ્ટિ આત્મવતું નથી, અને જે એ વાતને પણ જાણતા નથી કે હિંસા કરવાથી નરક, નિગેદ આદિ અનંત ભામાં ભ્રમણ કરવા રૂ૫ કડવાં ફળ ભેગવવા પડે છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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