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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्र केचित् नैयायिका इत्यर्थः, तद् यथा सित्यकुरादिकं कर्तृजन्य कार्यत्वात् घटवदिति । जलवुदादौ हेतौरनैकान्तिकत्वेनास्यालीकता । एवं ‘कसिणमेव ' कृत्स्नमेव-सकलमेव 'जगं' जगत् ‘विण्हुमयं' विष्णुमयं = विष्णुस्वरूपमिति 'के' केचित् वदन्ति तन्मतानुयायिनः, यथा "जले विष्णुः स्थले विष्णु, विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥१॥” इति । ऐसा मानते हैं कि यह जगत् प्रजापति-ब्रह्माने बनाया है। कितनेक कहते हैं कि यह जगत् ईश्वरने बनाया है सो इस प्रकार की मान्यता में अलीकता प्रमाणबाधित होने के कारण आती है। तथा जो नैयायिक जन ऐसा कहते हैं कि यह जगत् ईश्वर ने बनाया है, क्यों कि यह घटादिकी तरह कार्य है "क्षित्यकुरादिकं कर्तुजन्यं कार्यत्वात् घटवत्" सो कार्यत्वरूप हेतु में जल वुवुद आदि द्वारा अनैकान्तिक दोष आता है, इसलिये यह उनकाकथन असत्यरूप प्रमाणित हो जाता है । ( एवं विण्हुमयं कसिणमेव य जगंति केइ ) इसी तरह यह सकल जगत् विष्णुमय है ऐसा भी कोई २ कहते हैं, क्यों कि उनकी ऐसी मान्यता है कि " जले विष्णुः स्थले विष्णु-विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामाला कुले विष्णुः सर्व विष्णुमयं जगत् ॥१॥" जल में विष्णु हैं, थल में विष्णु हैं, पर्वत की चोटी ऊपर विष्णु हैं, ४७ ५५ २ विष ४ छे.- ' पयावइणा" त्यादि At-" पयावइणा इस्सरेण य कयत्ति केइ " ets all मेवु माने છે કે આ જગત પ્રજાપતિ-બ્રહ્માએ બનાવ્યું છે. કેટલાક કહે છે કે આ જગત ઈશ્વરે બનાવ્યું છે, તે તે પ્રકારની માન્યતામાં મૃષાવાદ-અસત્ય દોષ પ્રમાણબાધિત હોવાને કારણે આવે છે. તથા જે નિયાયિકે એવું કહે છે કે આ જગત ઈશ્વરે मनाव्यु छ. २५ ते घाहिना से आय छ, “क्षित्यकुरादिकं कर्तजन्य कार्यत्वात् घटवत् " तो आय (१३५ हेतुमा मुमुद मा वा अनन्ति atष भावे छ, तथा मर्नु ते ४थन असल्य ३५ सिद्ध थाय छे. “ एवं विण्डमय कसिणमेव य जगंति केइ" को प्रमाणे मा समस्त गत विभय छ એવું પણ કેટલાક લેકે કહે છે, કારણ કે તેમની એવી માન્યતા છે કે "जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ।। १ ।। જળમાં વિષ્ણુ છે, સ્થળમાં વિણ છે, પર્વતનાં શિખરપર વિષ્ણુ છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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