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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ६०० प्रश्नव्याकरणसूत्रे युक्ता येते तथा-'समियासमिईसु ' समिताः समितिपु-ईर्यादिपञ्चसमितिभिर्युक्ता इत्यर्थः, तथा-' समियपावा ' शमितपापाः शमितं-शान्तं पापं आणातिपातादिरूपं येषां ते तथोक्ताः, तथा 'छबिहजगवच्छला' षड्विधजगद्वत्सलाः षड् जीवनिकायहिता इत्यर्थः, तथा-येते ' णिच्चमप्पमत्ता' नित्यमप्रमत्ताः सर्वदा प्रमादरहिताः सन्ति, 'एएहिय' एतैश्च पूर्वोक्तगुणविशिष्टैः, तथा-' अण्णेहि य' अन्यैश्च अनुकूललक्षणैगुणवद्भिर्या सा-जगत्मसिद्धा एपा भगवती अहिंसा 'अणुपालिश' अनुपालिता- वाङ्मनःकाययोगैराराधितेत्यर्थः ॥ सू-४ ।। युक्त बने हुए हैं, तथा ( समिइसुसमिया ( जो ईर्या आदि पांच समितियों से युक्त हैं और इसी कारण से ( समिइपावा ) जिन्हों के प्राणातिपादिरूप पार शांत हो चुके हैं, तथा ( छव्विह जगवच्छला) जो सदा छहकाय के जीवों की रक्षा करने में वत्सल भाववाले होते हैं तथा (णिञ्चमप्पमत्ता) जो पांच प्रमादों से नित्य रहित होते हैं (एएहिं) ऐसे इन पूर्वोक्त गुणों से विशिष्ट महात्माजनों द्वारा तथा ( अण्णेहिय ) इस प्रकार के लक्षणों से युक्त अन्य गुणवालों द्वारा ( जा सा भगवई ) यह जगत्प्रसिद्ध भगवती अहिंसा ( अणुपालिया ) मन, वचन, और काय, इन तीन योगों की एकाग्रता से अच्छी तरह आराधित की गई है। ___ भावार्थ-अहिंसा तत्व को यद्यपि प्रत्येक सिद्धान्तकारोंने अपने २ सिद्धान्तानुसार अपनाया है। परन्तु इस तत्व का बाहिरी स्वरूप विवेचन करते हो वे रह गये हैं । अन्तरंग स्वरूप विवेचन उनकी दृष्टि भए३५ पाय मानतोयी युत थयेछ, त५॥ “ समिइ सुसमिया "२ या साल पांय समितियोथी युत छ भने से ०४ ४२४थी. “ समिइपावा" भना प्रातिपाता३ि५ ५।५ शान्त २४ गयां छे, तथा “ छव्विहजगवज्छल! "सहा ७४ायन। वानी २क्षा ४२वामा पत्सस भाव पणा हाय छ, तथा" णिच्चमप्पमत्ता" २ सही पाय प्रमाहोथी २हित डाय छ “एएहि" सेवा से पूर्वोत गुणेथी युद्धत भडामा २॥ तथा “ अण्णेहिय " ! ५४२ना गुणेथी यु: मन्य गुणुयानो वा “ जा सा भगवई " 240 २४॥विध्यात सती माडिस! " अनुपालिया" मन, वयन, अने. आय, ये યોગેની એકાગ્રતાથી સારી રીતે આરાધવામાં આવી છે. ભાવાર્થ—અહિંસા તત્વને છે કે દરેક સિદ્ધાન્તકાએ પિત પિતાના સિદ્ધાન્તાનુસાર અપનાવેલ છે, પણ આ તત્વને બાહ્ય સ્વરૂપનું જ વિવેચન તેમણે કર્યું છે. અન્તરંગ સ્વરૂપ વિવેચન તેમની નજરે ન પડ્યું. તેનું પરિ. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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