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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org , " सुदर्शिनी टीका अ०३ भू०८ ' शय्यापरिकर्मवर्जन' नामक तृतीय भावना निरूपणम् ७५५ सततम् - निरन्तरम्, ' अज्झष्पज्झाणजुत्ते ' अध्यात्मध्यानयुक्तः = त्रात्मानमधिकृत्य अध्यात्मम्=आत्मालम्बनरूपं यद्ध्यानं तेन युक्तः = समन्वितः, तथा - ' समिए ' समितः समितिभिर्युक्तः ' एगे एकः = एकाकी रागद्वेषरहितः, 'धम्मं धर्म= श्रुतचारित्रलक्षण' चरेज्ज' चरेत् = आचरेत् । उपसंहरन्नाह - ' एवम् ' प्रकारेण 'सिज्जासमिजोगेण शय्यासमितियोगेन भावितोऽन्तरात्मानित्यम्, 'अह्निकरण करणकरावणपावकम्मचिरए' अधिकरणकरण कारणपापकर्मविरतः - अधिकरणं= शय्यापरिकल्पनार्थं वृक्षादीनां छेदनमेदनरूपं यत्सावद्यं कर्म, तस्य यत्स्वयं करणम्, अन्यतश्च कारणं उपलक्षणत्वादनुमोदनं च तद्रूपं यत्पापकर्म ततो विरतो= निवृत्तो यः स तथोक्तः, तथा - दत्तानुज्ञालावग्रहरुचिः = दत्तानुज्ञातैषणीय पीठफळकादेरुपभोगकारी भवति ॥ ८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( समाहिबहुले ) चित्त की स्वस्थतारूप समाधि की प्रचुर मात्रा से सहित होने के कारण समाधि बहुल, बना हुआ वह साधु ( फासयंतेकाएणधीरे ) परीपड़ों को सहते हुए शरीर से धीर - अक्षोभ्य बना रहता है। तथा ( सययं अज्झष्पज्जाणजुत्ते ) निरन्तर आत्मावलम्बन रूप ध्यान से युक्त बना हुआ वह साधु ( समिए) पांच समिति के पालन से (एंगे ) अकेला रागद्वेष रहित होकर (धम्मं चरेज्ज) श्रुतचारित्ररूप धर्म का आचरण करता रहता है ( एवं ) इस प्रकार से ( सेज्जास मिजोगेण ) शय्या समिति के योग से (भाविओ अंतरप्पा ) भावित जीव ( निच्च) नित्य ( अहिकरणकरणकारणपावकम्महुआ fare) व्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादिकों के छेदन भेदन रूप सावध अनुछान के करने दूसरों द्वारा कराने तथा अनुमोदना रूप पापकर्म से निवृत्त CC " अर्‌गे स ंवृतमहुल, तथ! समाहिबहु ” ચિત્તની સ્વસ્થતારૂપ સમાધિથી अत्य ंत प्रभाणुभां युक्त होवाने अरणे सभाधिणडुस, मनेस ते साधु " फासयंते काएणधीरे” परीषहोने सहन उस्ता उस्तां शरीरथं धीर-क्षोलरहित रहे छे तथा " सय अज्झपज्जाजुत्ते ” निरंतर आत्भावसन ध्यानथी युक्त मनेब ते साधु " समिए " यांथ समितिना भासनशी “ एगे " भेडो रागद्वेष रहित थाने " धम्मं चरेज” श्रुतथास्त्रिय धर्मनु भयर अर्या ४३ छे " एवं " या रीते "सेज्जा समिइ जोगेण" शय्यासभितिना योगथी “भाविओ अतरप्पा" लावित थयेस 1 " निच्च" नित्य " अहिकरण करणकारण पावकम्मविरए" शय्याપરિકલ્પનાથે વૃક્ષાતિના છેદન ભેનરૂપ સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરતાં, ખીજા પાસે કરાવતાં તથા અનુમેદનારૂપ પાપકર્મથી નિવૃત થઇ જાય છે. તથા दत्तम् (4 For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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