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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र स्तेनः, कस्यापि श्रुतविशेषस्यापूर्व व्याख्यानं कस्यापि मुखादुपश्रुत्य जनसमक्षे खकीयत्वेन तं ख्यापयन् साधुर्भावस्तेन उच्यते । तथा यः साधुः ‘सहकरे' शब्दकरः प्रहररात्रिगमनानन्तरं यो महता महता शब्देन भाषते स शब्दकर उच्यते । ' झंझकरे ' झञ्झाकरः येन कार्येण गणस्य भेदा भवति तत्कार्यकारी 'कलहकरे' कलहकरः वाचिकभण्डनकारी ' वेरकरे ' वैरकरः परस्परशत्रुभावोत्पादकः, तथा-'विकहकरे' विकथाकरः च्यादिकथाकारी, 'असमाहिकारगे' असमाधिकारकः-स्वपरचित्तोद्वेगकारकः, तथा- सया' सदा 'अप्पमाणभोई' अपने में अविद्यमान उत्कृष्ट आचारवत्ता स्थापित की है अतः जो ऐसे आचारस्तेन होते हैं उनसे इस महाव्रत की आराधना नहीं हो सकती है, ( भावतेणे ) जो श्रुतज्ञान आदि भाव की चोरी करता है वह भावस्तेन कहलाता है, जैसे किसी के मुख से किसी साधु का श्रुत विशेषसंबंधी अपूर्व व्याख्यान सुनकर कहता है कि यह व्याख्यान तो मेरा ही दिया हुआ है, इस प्रकार का भावस्तेन साधु भी इस महाव्रत की आराधना नहीं कर सकता है। इसी तरह (सहकरे) जो साधु एक प्रहर रात्रि के चले जाने के बाद बड़े जोर २ से बोलता हैं उसका नाम शब्दकर है । ( अझकरे ) जिस कार्य से गण में भेद हो जाय उस काम को करने वाला साधु झंझाकर है। (कलहकरे) आपस में जो वाक्कलह कर बैठता है उसका नाम कलहकर है, ( वेरकरे ) परस्पर में जो शत्रुता का उत्पादक होता है वह वैरकर है, (विकहकरे ) स्त्री आदि विकथाओं को करनेवाला साधु विकथाकर है, (असमाहिकरे) અવિદ્યમાન છે તે ઉત્કૃષ્ટ આચારવત્તાનું આરોપણ કર્યું છે. તેથી જે સાધુઓ એવાં આચાર ચાર હોય છે તેમનાથી આ મહાવ્રતની આરાધના થઈ શકતી नथी. 'भावतेणे"२ श्रुतज्ञान माहि मावनी यारी ४ ते भावयो२ ४उपाय છે. જેમ કે કેઈન મેઢે કઈ સાધુનું કઈ શાસ્ત્ર સંબંધી અપૂર્વ વ્યાખ્યાન સાંભળીને જે સાધુ એમ કહે કે આ વ્યાખ્યાન તો મેં જ આપેલું છે. આ પ્રકારને ભાવાર साधु पात्र मातनी २२राधना ४२री २४तो नथी. मे २८ प्रमाणे “सहकरे" १४४२જે સાધુ એક પ્રહર રાત્રિ પ્રસાર થયા પછી ઘણા જોરથી બોલે છે તેને શબ્દકર छ, “ झंझकरे” ले यथा समूडमा सहभाय थाय ते आय ४२नार साधु ॐआ४२ ४उपाय छ, "कलहकरे ' सा५सम 2 41५४१६ ४३ मेसे छे तेने ४१९४२ ४ छ, “ वेरकरे' मा५समा ३२ पहा ४२११ना२ सय ते ३२. ४२ ४७ , " बिकहकरे " श्री मा qिया। ४२नार साधुने विया४२४ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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