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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ०५ सू० ४ अध्ययनोपसंहारः 'प्रसस्तं' प्रशस्त-सर्वप्राणिहितकरत्वान्मगुलमयम्, पढम संवरदारं' प्रथमसंवरद्वार 'समत्त 'समाप्तम्, 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि-अस्यार्थःपूर्वमुक्तः ॥ सू० ११ ॥ ॥ इति प्रथमं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त . ' जैनशास्त्राचार्य' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रसुदर्शन्या ख्यायां व्याख्यायां संवरात्माके द्वीतीये-भागेऽहिंसानामकं प्रथमं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ १ ॥ यह प्रथम संवर द्वार समाप्त हुआ! (त्ति बेमि) हे जंबू। जैसा में ने भगवान महावीर के मुख से इसे सुना है वैसा ही यह मैंने तुम से कहा है-अपनी कल्पना से इसमें कुछ भी नहीं कहा है। ___ भावार्थ-प्रथम संवरद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि इस संवरद्वार को प्रत्येक मुनिजन के लिये अच्छी तरह उपयोग पूर्वक पांचभावनाओं सहित यावजीव पालन करना चाहिये । इसके पालन करने में यदि कोई परीषह और उपसर्ग आवे तो उन्हें धैर्यपूर्वक सहलेना चाहिये, क्यों कि यह संवर द्वार नवीन कर्मों के आस्रव को रोकता हैं। इसके पालन करने से अशुभ अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होने पाते हैं। पापों का स्रोत इसके प्रभाव से बंध हो जाता है। यह प्रा२नु प्रथम सप२६॥२ सपू यु. “त्तिबेमि" ! रे में ભગવાન મહાવીરના મુખેથી સાંભળ્યું છે એવું જ તે મેં તમને કહ્યું છે– મારી કલ્પનાથી તેમાં મેં કંઈ પણ કહ્યું નથી. ભાવાર્થ–પ્રથમ સંવરદ્વારને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે આ સંવરદ્વારનું પ્રત્યેક મુનિએ સારી રીતે ઉપયોગ પૂર્વક પાંચ ભાવનાઓ સહિત જીવનપર્યત પાલન કરવું જોઈએ. તેનું પાલન કરતાં જે કોઈ પરીષહ તથા ઉપસર્ગ નડે તે વૈર્યથી તેને સહન કરી લેવા જોઈએ, કારણ કે આ સંવરદ્વાર નવીન કને આસ્રવ થતો રેકે છે. તેનું પાલન કરવાથી અશુભ અધ્યવસાય ઉત્પન્ન થવા પામતો નથી. તેના પ્રભાવથી પાપના પ્રવાહથી બંધ થઈ જાય છે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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