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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं ' अधोऽच्छिन्नतृष्ण प्रस्थान-प्रस्तोतमतिकं = अधोगतो अच्छिन्नतृष्णानां विषयलोलुपानां यत् प्रस्थान गमनं तत्र प्रस्तोत्री-प्रवर्तिका मतिः = बुद्धिरस्ति यस्मिनदत्तादाने तत्तथा नरकायधोगतिकारणमित्यर्थः, 'अकित्तिकरं' अकीर्तिकरम् अयशस्करम् 'अणज्ज-अनार्यम् = अनार्याचस्तित्वात् अथवा अन्याय-न्यायवर्जितं न्यायरहितमित्यर्थः 'छिमंतरविधुरवसणमग्गणउस्सवमत्तप्पमत्त-पमुत्तवंचणाक्खिवण-घायणपराणिहुय-परिणामतकरजणवहुमयं' छिद्रान्तरविधुरव्यसनमार्गणोत्सवमत्तप्रमत्तप्रसुप्तवञ्चनाऽऽक्षेपणघातनपरानिभृतपरिणामतस्करजनबहुमत-तत्र छिद्रं = 'केन मार्गेण गन्तव्य' मित्यादिकम् , अन्तरम् अवसरः जनानां निद्रादिलक्षणः, विधुरं = अपायः कष्टप्राप्त्यादिलक्षणः, विषमस्थानों को अदत्तादान का कारण कहा गया है। (अहो अच्छिन्नतण्हपत्यागपत्थोइमइयं ) जिन व्यक्तियों की विषय तृष्णा छिन्न नहीं होती है ऐसे व्यक्ति ही अधोगति में पहुँचाने वाली अपनी बुद्धि के द्वारा इस अदत्तादान में प्रवृत्ति करते हैं, अतः अधोगति में गमन की कारणभूत जो विषय लोलुपों की मति है वह भी इस अदतादान की एक कारणभूत है । यह अदत्तादान (अकित्तिकरं ) अयश कारक है । ( अणजं) अनार्यों द्वारा ही आचरित किया जाता है इसलिये अनार्यरूप है । अथवा नीतिमार्ग से विरुद्ध होने के कारण अन्याय्य है। (छिदं) इस अदत्तादानको करने वाले व्यक्ति इस बातकी गवेषणामें रहते हैं कि हमें इस कामको करने के लिये किस मार्गसे होकर जाना चाहिये तथा (अंतर) अन्तर की-कौनसा अवसर इस कामको सिद्ध करनेवाला होगा इस तरहके मनुष्योंके निद्रादिरूप समयकी विधुर) विधुरकी-कष्ट भने दुर्गमस्थानाने महत्तहान माश्रयस्थानी ता०यां छ. 'अहो अच्छिन्नतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं" नी विषय वासना नष्ट थती नयी मेवा લેકે જ અધોગતિમાં લઈ જનાર પિતાની બુદ્ધિ દ્વારા આ અદત્તાદાનમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, તેથી અધોગતિમાં ગમન કરવાના કારણરૂપ વિષય લેપની જે भति छे ते ५६ मा महत्तहान भाटे.॥२९॥३५ छ, न महत्ताहान " अकित्तिकरं" मीति अपावना छ, “ अणंजं " मनाद्विारा सेवा वाथी અનાયરૂપ છે, અથવા નીતિ માર્ગથી વિરુદ્ધ હોવાથી અન્યાયયુક્ત છે. " छिई” मा महत्ताहान सेवना२ व्यतिथे पातनी शोधमा રહે છે કે આ કામ કરવા માટે આપણે ક્યા માર્ગે થઈને જવું જોઈએ तथा “ अंतर" मतरनी-४ मत २ आभने सिद्ध ४२वा माटे मनुण થશે તેની શોધમાં રહે છે. આ રીતે માણસના નિદ્રાદિરૂપ સમયની શોધમાં For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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