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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३ अहिंसामाहात्म्यनिरूपणम् ૧૭૨ , तृषितामिव सलिलम् = जलम्, प्राणरक्षकत्वात्, 'खुहियाणं पिव असणं' क्षुधितानामिवाशनम् = क्षुधार्तप्राणिनां कृतेऽशनं भोजनमित्र, अन्नग्राणाः इति वचनात् । तथा - ' समुहमझे व पोहणं समृद्रमध्ये इव पोतवहनम् - यथा समुद्रमध्ये नौः प्राणिनां त्राणाय भवति, तथैव संसारसमुद्रमध्ये इयमहिंसा प्राणिनां त्राणाय पोतायते इति भावः । तथा - 'चउप्पयाणं च आसमपयं ' चतुष्पदानां च आश्रमपदम् - यथा चतुष्पदप्राणिनां कृते गोष्ठं विश्रामस्थानं तथैवाहंसापि सर्वप्राणिनां 66 प्राणरक्षा का साधनभूत जल होता है उसी प्रकार यह अहिंसा भी प्राणियों के प्राणों की रक्षा का एक साधन है । (खुहियाणं पिव असणं) अन्न ही प्राण है" इस उक्ति के अनुसार जिस प्रकार भूख से पीडित हुए प्राणियों के लिये भोजन एक मात्र आधारभूत होता है उसी प्रकार यह अहिंसा भी जीवों की रक्षा करने का एक सर्वोत्तम साधन है । ( समुद्दमज्झेव पोपवहणं ) समुद्र के बीज में नौका जिस प्रकार प्राणियों की रक्षा करने वाली होती है उसी प्रकार संसार समुद्र के बीच में पतित हुए प्राणियों की रक्षा करने के लिये यह अहिंसां ही एक सर्वोत्तम द्रढ नौका जैसी है। (चउप्पयाणं च आसमपयं ) चतुष्पद - जानवरों के लिये जिस प्रकार विश्रामस्थल गोष्ठ होता है उसी प्रकार यह भगवती अहिंसा भी सर्वप्राणियों के लिये सर्वोत्तम विश्रामस्थल है । (दुहट्ठियाणं च ओसहिबलं ) रोगग्रस्त व्यक्तियों को जिस प्रकार ओषधि का सहारा होता है उसी प्रकार कर्मरोगग्रस्त भव्य जीवों के સ્યાઓની પ્રાણરક્ષા માટે પાણી સાધનરૂપ અને છે, એ જ પ્રમાણે આ અહિંસા पशु प्राशुयाना आशु मथाववानु मे साधन छे. " खुहियाणं पिच असणं " “ અન્ન જ પ્રાણ છે ” તે કથન પ્રમાણે જેમ ક્ષુધાથી પીડાતા પ્રાણીએ માટે ભોજન જ એક માત્ર આધાર હોય છે એ જ પ્રમાણે આ અહિંસા પણુ लवानु' रक्षा खानु सर्वोत्तम साधन हे “ समुद्दमज्जेव पोय वहणं " સમુદ્રની વચ્ચે જેમ નૌકા પ્રાણીઓનુ રક્ષણ કરે છે તેમ સ ́સાર સાગરમાં ડૂબેલા પ્રાણીઓની રક્ષા કરવાને માટે આ અહિંસા જ મજબૂત નૌકા જેવી छे. " चउपयाणं च समपयं " अतुष्पह-लनवरोने भाटे भगोष्ठ (वाडे) વિશ્રામસ્થાન હોય છે એ જ પ્રમાણે આ ભગવતી અહિંસા પણ સમસ્ત आशीखाने भाटे सर्वोत्तम विश्रामस्थान छे. " दुहट्टियाणं व ओसहि बलं " રાણીને જેમ ઔષિધના સહારા હોય છે તેમ ક રોગગ્રસ્ત ભવ્ય વાને For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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