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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५० प्रश्नव्याकरणसूत्रे किंचि' यत्किंचित् ‘सेज्जोवहिस्स' शय्योपधेः-शय्योपकरणस्य 'अट्ठा ' अर्थायहेतवे 'गेण्हइ ' गृहाति, तत् ' उग्गहे ' अवग्रहे आज्ञायाम् ‘अदिण्णे' अ. दत्ते अदत्तायाम् , अर्थात् तत्तद्वस्तु स्वामिन आज्ञायामप्राप्तयां सत्यां 'गेण्हिउं' ग्रहीतुं साधूनां 'न कप्पइ ' न कल्पते, 'जे' यत्-यस्मात् कारणात् ' हणिहणि' अहन्यहनि प्रतिदिनम् ' उग्गहं' अवग्रहम् अणुण्णविय' अनुज्ञाप्य याप्य तत्तद्वस्तु साधुभिः 'गेण्डियव्वं ' ग्रहीतव्यं भवति । उपसंहरनाह-एवम् अनेन प्रकारेण 'उग्गहसमिइजोगेण' अवग्रहसमितियोगेन-अवग्रहः शय्योपध्यर्थ तृणाधादानस्य तत्तत्स्वामिन आज्ञा तत्र या समितिः सम्यक्प्रवृत्तिस्तया यो योगः-संबन्धस्तेन भावितो यासितः ' अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवो नित्यम् , ' अहिकरकोंपल, कन्द, मूल, तृण-सामान्य तृणविशेष, काष्ठ-लकड़ी, शर्कराकंकड, इनमें से जिस किसी पदार्थ को जो (सेज्जोवहिस्स अट्टाए गेण्हइ ) शय्योपकरण के निमित्त लेता है, परन्तु ( उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिउ न कप्पइ) इन २ वस्तुओं के स्वामी यदि उन २ वस्तुओंको लेने की आज्ञा नहीं देते हैं तो साधुको इन वस्तुओंका लेना नहीं कल्पता है (जे) इसलिये जो (हणि हणि उग्गहं अणुण्ण वि य गेण्हिशवं) प्रतिदिन उन २ वस्तुओं को लेने के लिये उन२ वस्तुओंके स्वामी की आज्ञा साधु को लेनी चाहिये, और आज्ञा प्राप्त हो जाने पर ही उन२ वस्तुओं को लेना चाहिये। ( एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा निच्चं अहिकरण, करण कारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवह) इस प्रकार से अवग्रहसमिति के योग से-शय्योपधिके निमित्त तत्तद्वस्तुओं के स्वामी की आज्ञा प्राप्तकर तृणादि को के लेने में सम्यक् प्रवृत्ति के साथ संबंध ४४, भूग, तृ-सामान्य घास, ४०४-८४i, १४२१-४४३, ते मामाथी । ५] पार्थ ने रे " सेज्जोवहिस्स अट्ठाए गेहइ " शय्या मनाववाना साधन तरी छ, ५ “ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिउ न कप्पइ" ते ते वस्तुमाना માલિક જે તે તે વસ્તુઓ લેવાની રજા ન આપે તે સાધુઓને તે વસ્તુઓ देवी ४६५ती नथी. “जे" तेथी२ "हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गेण्हियवं" प्रतिદિન તે તે વસ્તુઓ લેવાને માટે તે તે વસ્તુઓના માલિકની મંજૂરી સાધુએ खेवन, भने भारी भन्या पछी ०४ ते ते परतु मे देवी . “ एवं उग्गह समिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा निच्चं अहिकरण, करणकारावरणपावकम्म विरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवइ" मा प्रभारी सवय समितिना योगयीશપધિને નિમિત્તે તે તે વસ્તુઓના માલિકની આજ્ઞા મેળવીને તૃણાદિકોને For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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