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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे निराशबहुलाः = इष्टवस्तुमात्यभावादतिनिराशाः, ' आसपासपडिबद्धपाणा' आशापाशमतिबद्धमाणाः= आशैव पाशाः बन्धनं तेन प्रतिवद्धा-निरुद्वाः माणा येषांते तथा आशामाजीविनः, 'लोयसारे ' लोकसारे लोकसारभूते 'अत्थोप्पायणकामसोक्खे' अर्थोत्पादनकामसौरव्ये तत्र अर्थोत्पादन-द्रव्योपार्जन कामसौरव्य-इन्द्रियजनित सौरव्यं तत्र ' सुटुअवि उज्जमंता ' सुष्टु अपि उद्यमन्तः -उद्योगं कुर्वन्तः ' अफलवंतगा' अफलवन्तश्च-अभिलपितवस्तुपाप्तिरहिताः 'हुंति' भवन्ति । पुनः कीदृशा भवन्ति ? त्याह ' तदिव मुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसंठविसिस्थपिंडसंचयपरा ' तदिवसोयुक्तकर्मकृतदुःखसंस्थापितसिस्थपिण्ड सञ्चयपराः, तत्र तदिवसेषु-तनदिनेषु उद्युक्तैः-उद्योगवद्भिः सद्भिः कर्मणा व्यापारेण कृते. नापि दुःखेन अतिक्लेशेन संस्थापितः = प्राप्तो यः सिक्थानाधान्यकणानी पिण्डस्तस्य सञ्चये परा:-तत्परा ये ते तथा सम्पूर्णदिनमुद्योगपराः सन्तोऽपि(निरास बहुला ) इष्टवस्तुकी प्राप्ति नहीं होने के कारण ये सदा निराश ही बने रहते हैं । (आसापासपडिबद्धपाणा ) फिर भी ये जो जीते हैं उसका कारण इनकी आशा है। इसी आशाकी पाश में ही इनके प्राग हो बंधे हुए रहते हैं। (लोयसारे) यद्यपि ये लोक में सारभूत माने गये ( अत्थोप्पायणकामसोक्खे ) अर्थार्जन एवं इन्द्रिय जनित सुख में (सुई अविउज्जमंता) अच्छी तरह से उद्यम शील रहते है, परन्तु फिर भी (अफलवंतगा) इन्हे अभिलषित वस्तुकी प्रप्ति नहीं होती है । उससे ये रहित (हुंति ) बने रहते हैं। (तद्दिवसुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसंठवियसिथपिंडसंचयपरा ) (तद्दिवसुज्जत्त) प्रतिदिन उद्योग करते रहने पर भी ( कम्मकय ) किये गये काम से (दुक्खसंठविय ) मुश्किल से प्राप्त हुए (सिस्थपिंड संचयपरा ) धान्यभगवान ४।२णे रोमी सहा निराश १४ २७ छ. “आसपासपडिपद्धपाणो" છતાં પણ તેઓ જીવી શકે છે તેનું કારણ તેમની આશા છે. તે આશાના पाशमा तमना पY माये॥ २९ " लोयसारे" on तेम। खोजीमा सारभूत मनात “ अत्थोप्पायणकामसोक्खे " मान (धन भावामi) तथा धन्द्रिय नित सुममा “ सुठुअविउज्जमंता" सारी ते प्रयत्नशील २९ छ, पy “ अफलवंतगा" तेभने छित वस्तु भगता नथी. तेनाथी तेस २डित "हुति ॥ २७ छ. " तद्दिव सुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसंठविय सिथपिंडसंचयपर।" " तद्दिव सुज्जुत्त” ४२२।०४ उद्यो४२वा छतi ५५ " कम्मकय'' ४२८४ामयी "दुक्खसंठविय" भुश्तीथी भणे " सिथपिंडसंचयपरा ” धान्यानो For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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