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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २० अदत्तादायिनः कोदृशं फलं लभन्ते ! ३८५ कठिनपरिश्रमेणापि दिनमात्राहारयोग्यमेवकथञ्चित् अन्नादिकं पाप्नुवन्तीत्यर्थः, 'खीणदब्यसारा' क्षीणद्रव्यसाराः दरिद्राः णिच्च धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया' नित्यं धनधान्यकोशपरिभोगविवर्जिताः तत्र नित्यं सदा धन-गणिमादिकं धान्यं शाल्यादिकं कोशाः भाण्डागारास्तेषां परिभोगेन-उपभोगेन विवर्जिताः, रहिताः, तथा 'रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा' रहितकामभोगपरिभोगसर्वसौख्याः =रहितं कामयोः शब्दरूपयोः भोगानां गन्धरूपस्पर्शानां परिभोगसौख्य-उपभोग जनित आनन्दः येषां ते तथा कामभोगसुखवर्जिता इत्यर्थः, 'परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा' परश्री भोगोपभोगनिश्वाणमार्गणपरायणाः, तत्रपरेपाम् अन्येषां श्रियाः सम्पत्तेः यौ भोगोपभोगौ-भोगः सकृत् सुज्यते यः सः आहार पुष्पादिरूपः, उपभोगश्च गृहवस्त्रादिलक्षणः तयोर्यनिश्राणं तस्य मार्गणं कणों के पिण्ड के संचय करने में ही लगे रहते हैं अर्थात् सम्पूर्ण दिन उद्योग में तत्पर रहने पर भी ये बडे कठिन परिश्रम से केवल उसी दिन के योग्य अन्नादि सामग्री को जिस किसी प्रकार से अर्जित कर पाते हैं । ( खीणव्वसारा ) द्रव्य रूप सार से रहित न होने के कारण ये दरिद्र होते हैं। ( णिच्चं धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया) सर्वदा ये गणिमादि रूप धन, शाली आदि धान्य एवं भाण्डागार इनके परिभोग-उपभोगसे रहित होते हैं । (रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा) शब्द एवं रूप स्वरूप कामके, गन्ध रस और स्पर्श स्वरूप भोगों के परिभोग के सुखों से रहित होते है, (परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा ) ( परसिरि) दूसरे व्यक्तियों की लक्ष्मी के (भोगोवभोग) भोग और उपभोग के (निस्साणमग्गणपरायणा ) आश्रय की वांछा में ही सदा लगे रहते हैं । जो एक बार भोगने में आते हैं ऐसे आहार, સમૂહને સંગ્રહ કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે. એટલે કે આખો દિવસ મહેનત કરવા છતાં પણ તેઓ અતિ ભારે પરિશ્રમથી ફક્ત એ એક દિવસ ચાલે એટલી मान्न सामग्री भांड मांड पास ४२श छ. "खीण दव्वसारा" द्रव्य३५ सारथी २डित पाने सणे तसा दरिद्र डायछे." णिच्चं धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया સર્વદા તેઓ સેનામહોર આદિ ધન, શાલી આદિ ધાન્ય અને વાસણના ભંડારની तेभना उपभोगयी २हित २ छ, “ रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा ” २५४ અને રૂપ સ્વરૂપ કામના, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શસ્વલ્પ પરિભેગના સુખેથી તેઓ २हित डायछ “ परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा"" परसिरि" तमा अन्य व्यक्तिमानी सभीन। " भोगवभोग" मग तथा उपभोगना " निस्साणमग्गणपरायणा” आश्रयनी पासनामां सह बीन २७ छ, रे For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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