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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मासनम्नीचावस्थानादिलक्षणं तथा कुत्सिता शय्या विषमभूम्यादिरूपा येषां ते तथा, 'कुभोयणा' कुभोजनाः क्रोद्रवादिकदन्नाशिनः ‘असुइणो' अशुचयः= शुचिवर्जिताः, 'कुसंघयणकुप्पमाणा' कुसंहनन कुप्रमाणा: कुसंहननाः सेवार्ताति संहननयुक्ताः कुप्रमाणाः कुत्सितं शरीरस्य प्रमाणं येषां ते तथा अतिदीर्घा अति. इस्वावेत्यर्थः, तथा ' कुसंठिया' कुसंस्थिताः कुत्सिता हुण्डादि संस्थानयुक्ताः 'कुरूवा' 'कुरूपाः 'बहुकोहमाणमायालोमा' बहुक्रोधमानमायालोभाः अतिक्रोधादियुक्ताः बहुमोहाः अतिकामाः ‘धम्मसण्णासम्मत्तपन्भट्ठा' धर्मसंज्ञासम्यक्त्वपरिभ्रष्टाः धर्मसंज्ञायाः श्रुतचरित्रलक्षणधर्मबुद्धेः सम्यक्त्वाच्च-जिनवचनरुचेः परिभ्रष्टाः स्खलिताः 'दारिदोववाभिभूया' दारिद्रयोपवाभिभूताः अत्यन्तदरिद्राः, अतएव ‘णिच्चं ' नित्यं सदा ‘परकम्मकारिणः= परगृहे कुग्रामों में इनका वास होता है, अवस्थान-रहन सहन इनकी नीच होती है, विषमभूमि आदि रूप इनकी शय्या होती है । (कुभोयणा ) को द्रव आदि कदन्न ( कुत्सितअन्न ) इनका भोजन होता है। (असुइणो) शुचिता-शारिरिक एवं आत्मिक पवित्रता इनमें होती नहीं हैं ये लोग पवित्रतासे सदा रहित रहते हैं। (कुसंघयणकप्पमाणा) इनका संहनन खराब होता हैं और शरीर इनका अतिदीर्घ या अति हस्व होता है। (कुसंठिया) संस्थान इनका हुण्डादि होता है । (कुरूवा) रूप भी इनका असुहावना होता है । (बहुकोहमाणमायालोभा ) बहुत ये क्रोधी होते है। मान, माया एवं लोभ की इनमें बहुत अधिकता रहती है । (बहुमो हा ) ये बहुत कामी होते हैं । (धम्मसण्णासम्मत्तपन्भट्ठा) श्रुतचारित्र रूप धर्मबुद्धि से एवं जिन वचनों में श्रद्धारूप सम्यत्क्व रुचि से ये सदा रहित होते हैं । ( दारिदो वद्दवाभिभूया ) दादिद्रय इनके घरों में सदा કરણી નીચ હોય છે. વિષમ ભૂમિ આદિ જગ્યા તેમની શય્યા બને છે. "कुभोयणा" अ६२॥ माह ४६न्न (५२२५ मन्न) तमनु लोन मने छे. " असुइणो" तेमनामा शारी२ि४ मने मानसि पवित्रता हाती नथी, ते सीमेश तेनाथी २हित य छे. "कुसंधयण कुप्पमाणा" तेभर्नु सनन ખરાબ હોય છે, એટલે કે તેમના શરીર કાંતે અતિશય ઊંચા અને કાંતે सतिशय नीयां खाय छे. " कुसंठिया" तमनi At मप्रमाणुसना डाय छ, " कुरूवा" तेभनु ३५ ५४ सुर खातुं नयी. " बहुकोहमाणामाया लोभा” तेसो ઘણું ક્રોધી હોય છે, અને માન, માયા અને લેભનું પ્રમાણ તેમનામાં વધારે साय छ. " बहुमोहा" ते भी डायछ. "धम्मसण्णासम्भत्तपन्भट्टा" श्रुत ચારિત્રરૂપ ધર્મબુદ્ધિથી તથા જિન વચમાં શ્રદ્ધારૂપ સમ્યકત્વ રુચિથી તે લેકે સદા २हित डायछे. दारिदोववामिभूया' तमना मा.सहा दारिद्रय २३छे.मने ते हरिद्रय For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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