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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अलुद्धे अमूढे मणवयणकायगुत्ते जो सो वीर-वरवयण-विरइ पवित्थर बहुविहपगारो संमत्तविसुद्धबद्धमूलो धिइकंदो विणय वेइओ निग्गयतेलोक विउलजसनिचियपीणपीवर-सुजायखंघो पंचमहव्वयविसालसालो भावणातयंतज्झाणसुभग जोगनाणपल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हयफलो पुणो य मोक्खवरवीयसारो मंदरगिरिसिहरचूलिया इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमन्गस्स सिहरभूओ संवरपायवो चरिमं संवरदारं ॥ १॥ टीका-'जंबू' हे जम्बू ! 'अपरिग्गहसंवुडे ' अपरिग्रहसंवृतः परिग्रहः= धर्मापकरणातिरिक्त वस्तुग्रहणम् , धषिकरणे मूर्छा च, तद्भिन्नोऽपरिग्रहाः, तत्र-संवृतः संलग्नो यः स चकाराद् ब्रह्मचर्यादि गुणयुक्तश्च यः स, 'समणे' पांचवां संवरद्वार प्रारंभ ब्रह्मचर्य नाम का चतुर्थ संवरद्वार समाप्त हो चुका । यह ब्रह्मचर्य नामका चतुर्थ संवर उसी व्यक्ति के होता है जो परिग्रह से सर्वथा विरत होता है । इसलिये क्रम प्राप्त परिग्रह विरमण नाम का पांचवां संवर द्वार कहा जाता है, उसका यह प्रथम सूत्र है-'जंबू ' इत्यादि। धर्मोंपकरणों से अतिरिक्त वस्तुओं का ग्रहण करना और धर्मोपकरणों में मूर्छाभाव का रखना इसका नाम परिग्रह है। इस परिग्रह से जो भिन्न है वह अपरिग्रह है। (जंकू) हे जंबू ! ( अपरिग्गहसंबुडे य समणे ) जो इस अपरिग्रह में संलग्नचित्त होता है एवं ब्रह्मचर्य आदि - પાંચમા સંવરદ્વારને પ્રારંભ બ્રહ્મચર્ય નામનું ચોથું સંવતદ્વાર સમાપ્ત થયું. તે બ્રહ્મચર્ય નામને ચતુર્થ સંવર એ જ વ્યક્તિને થાય છે કે જે પરિગ્રહથી સર્વથા વિરક્ત બને છે. તે કારણે અનુક્રમે આવતા પરિગ્રહ વિરમણ નામના પાંચમાં સંવરદ્વારનું, पणुन ४२पामा माछ, तनुं ! पहे सूत्र छ-" जंबू ” त्याहि ધર્મોપકરણો કરતાં વધારે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરવી અને ધર્મોપકણોમાં મૂચ્છભાવ રાખે તેને પરિગ્રહ કહે છે. આ પરિગ્રહથી જે ઉલટું છે તે अपरि उपाय छ- “जंवू " ! " अपरिग्गहसंबुडेय समणे' हे २१ ५२. ગ્રહમાં આસક્ત ચિત્તવાળા હોય છે અને બ્રહ્મચર્ય આદિ ગુણોથી યુક્ત હોય For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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