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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे धनहरणलोमावहाराऽऽक्षेपिणः = तत्र परधनं हरन्ति ये ते परधनहरणाः, लोमान्यवहरन्ति ये ते लोमावहराः = त्रधपूर्वक लुण्ठनकारिणः आक्षेपिणः = वशीकरणादिना चौर्यकारिणः ' हडकारगनिम्मदगगृहचोरगोचर अस्सचोरदासीचोरा य ' हठका रक निर्मर्दकगूढ चौरगोचौराश्व चौरासी चौराश्च तत्र हठं = बलात्कारं कुर्वन्तीति इठकारकाः, निर्मर्दकाच= निरतिशयेन मर्दनका रिणः युद्धेन धनापहारिणः, गूढचौराः= गुप्तचौरा, गौ चौरा अश्वचौरा दासीचौराव = प्रख्याताः =त एव ' एगचोरा ' एक चौराः = एकाकिन एव चोरयन्ति ये ते 'ओकडूगसंपदायगा ओलिंपगसत्यवाया, frontatकारगाय ' अपकर्षक सम्प्रदायकावच्छिक सार्थघातकविलकोलीकाररहकर चोरी करते हैं, संधिच्छेदक-भित्यादिक में सेंध करके चोरी करते है, (गठिया) ग्रन्थिभेदक गांठ कतरते हैं ( परधण हरगलोमावहार अवखेवी ) परधनहरणलोमापहाराक्षेपी होते हैं परके धन को हरण करने वाले, वध करके धनको हरण करने वाले वशीकरण मंत्र से वश करके धन को हरण करने वाले होते हैं ( हडकारगनिम्मदगगूढ चोरगोचोर अस्सचोरदासीचोरा य ) ( हडकारण ) बलात्कार से धन को हरण करने वाले, ( निम्मदग ) निर्मर्दक- युद्ध करके धन को हरण करने वाले, ( गूढचोर ) गुप्तरूप में रहकर पर के धन को हरण करने वाले, ( गोचोर ) गाय को हरण करने वाले, (अस्सचोर ) अश्व को हरण करने वाले, ( दासीचोर ) दासी को हरण करने वाले, ( एगचोरा य) अकेले रहकर पर के धन को हरण करने वाले, (ओक डुगसंपदायगा ओलिंपगसत्यवायगविलकोलीकारगा य ) ( ओकड्डग ) 61 CL વેશમાં જઈને ચોરી કરનારા હોય છે, સંધિચ્છેદક-દિવાલ આઢિમાં કાણુ પાડીને ચોરી કરનારા હોય છે, गंठिभेोयगा " ग्रन्थिलेड - मिस्सा उतरे छे, "परधणहरणलोभावहार अक्खेबी " પરધનહરણ લાભાપહારાક્ષેપી હોય છે-પરધનનું હરણ કરનારા, હત્યાકરીને ધનનું હરણ કરનારા. વશીકરણ મંત્રથી વશ કરીને ધનનું અપહરણ કરનારા હેાય છે, हडकारग निम्मद्दग गूढचोरगोचोर असचोरदासीचोरा य” “ हडकारग " मालारथी धनने हरी नारा, ' निम्महग " निर्म::-युद्ध उरीने धनने हुरी होनारा “ गृढचोर " गुप्तरीते रहने परंतु धन हुरी बेनारा, "गोचर" गायनु मया ४२नारा, अस्सचोर " घोडानी थोरी हरनार, “ दासीचोर " हासीनी योरी ४२नार, " एगचोराय " भेलो ने पाराना घननु डुगु प्रश्नारा " ओकतपदायगा ओछिंदग reator विलकोलीकारगा य " ओका " आप मीलना घरमाथी 66 66 - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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