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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ०१ सू० ११ प्राणिवधप्रयोजन प्रकारवर्णनम् ___टीका-'इमेहिं' एभिः वक्ष्यमाणैः 'विविहेहि' विविधैः नानाप्रकारैः 'कार णेहि कारणैः वक्ष्यमाणपयोजनैः सान् पाणान् घ्नन्ति अबुधा जनाः इत्यग्रेण सम्बन्धः। 'किं ते' कानि तानि प्रयोजनानि ? इत्याह-'चम्मे 'त्यादि । 'चम्म' धर्म-शरीरत्वचा, तदर्थ यथा 'चर्मणि द्वीपिनं इन्ति' इत्यादि । 'यसा' वसा शरीरस्थधातुविशेषः, 'चर्बी ' इति भापा, ' मंस' मांस, मेदो-देहस्थ चतुर्थधातु. इस प्रकार प्राणिवध के प्रकारों को कहकर अब सूत्रकार उसके प्रयोजन के प्रकारों को कहते हैं-इमेहिं विविहेहिं ' इत्यादि। ___टीकार्थ-जो अबुध-अज्ञानी मनुष्य हैं वे (इमेहिं) इन वक्ष्यमाण (विविहेहिं), नानाप्रकार के (कारणेहिं) प्रयोजनों के वशवर्ती होकर (हिंसंति तसे पाणे) प्रस जीवों की घात करते है । इस प्रकार का संबंध १३वे सूत्र में कथित " अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे" इन पदों को लेकर यहां लगा लेना चाहिये । (किं ते ) जिन प्रयोजनों को लेकर अज्ञानी-प्राणी प्रस जीवों की हिंसा करते हैं वे प्रयोजन क्या २ हैं-इसी विषय को सूत्रकार " चम्म-वसा-मंस-मेय" इत्यादि पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं, वे कहते हैं कि ( चम्म-वसा-मंस-मेय-सोणिय-जग-फिप्फिस-मत्थुलिंग-हियअंत-पित्त-फोफस-दंतहा ) अघुधजन जो इन प्राणियों की घात करते हैं उसमे कितनेक प्राणियों का उनकी (चम्म ) त्वचा प्राप्त करने का प्रयोजन रहता है इसलिये वे उनका घात करते हैं, कितनेक प्राणियों का उनकी (वसा ) चर्वी प्राप्त करने का उद्देश्य होता है, कितनेक આ પ્રમાણે પ્રાણવધના પ્રકારે વિષે વાત કરીને હવે સૂત્રકાર તેના કયા ध्या हेतु। य छे ते तावे छे-" इमेहिं विविहेहिं " त्या.. - मयुध-शानी मनुष्यो छे ते "इमेहिं" प्रमाणे “विविहे हिं" विविध ४२i "कारणेहि" प्रयोगनने १५ ने “हिंसति तसे पाणे" ત્રસ જેને ઘાત કરે છે. આ પ્રકારનો સંબંધ ૧૩ માં સૂત્રમાં કહેલ " अबुहा इह हिंसति तसे पाणे ' २ा पहानी साथै त्यias A. "किंते" જે હિતને ખાતર અજ્ઞાની–જીવ ત્રસ જીવેની હિંસા કરે છે તે હેતુઓ કયા કયા छ-२ विषयने सूत्र४.२ " चम्म-वसा-मंस-मेय" त्यादि पो. वा२॥ २५५८ ४२ छ. ते थे "चम्म, वसा, मस, मेय, सोषिय, जग, फिप्फिस, मत्थुलिंग हिय, अंत, पित्तफोफस, दंतहा" अमुध सो ते प्राणीमानी २ डिंसा ४२ छ તેને હેતુ કેટલાંક પ્રાણીઓની બાબતમાં તેમનું “મ” ચામડું પ્રાપ્ત કરવાનો હોય छ, ३८९is प्राणीयानी “वसा" ५२०ी प्रास ४२१॥ भाटे मनी १५ ४२॥य छ, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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