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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२४ সন্ধ पापकेन अशुभेन ‘मणसा' मनसा 'पायगं' पापकम् =अशुभं भवति, 'अहम्मियं ' अधार्मिकं दुर्गतिजनकत्वात् , दारुणं--विषमम् , तीव्रदुःखजनकत्वात् , 'निसंस' नृशंसम् आत्महितघातकत्वात् , तथा-' बहबंधपरिकिलेसबहुलं' वधबन्धपरिक्लेशबहुलम् , तत्र-वधो-मारणम् , बन्धः-निगडादिबन्धः, तज्जनितः परिक्लेशः परितापस्तेन बहुलं व्याप्त-संभृतम् , प्रतिसमयमसह्य संतापजनकत्वात् , तथा - ' मरणभयारकिलेससंकिलिष्टुं ' मरणभयपरिक्लेशसंक्लिट्रम्-मरण-प्राणवियोगस्तस्य यद् भयं तज्जनितो यः परिक्लेशः-परमसन्तापस्तेन संक्लिष्टं संव्याप्तम्, नरकनिगोदाधनन्तदुःखजनकत्वात्, एतादृश-विशेषणविशिष्टं करते हैं-'बीयं च' इत्यादि । टीकार्थ-(धीयं ) दुसरी मनोगुप्ति नामकी भावना इस प्रकार से है (पावएण मणेण ) अशुभ मन से अशुभ होता है-अर्थात्-अशुभमन से जीव पाप का उपार्जन करता है। यह पाप ( अहम्नियं ) दुर्गति का जनक होने से अधर्म रूप है। (दारुणं ) तीव्र दुःखों का उत्पदक होने से दारुण-विषम अर्थात्-कष्टकारक होता है । तथा (निसंस) इसमें आत्मा के हितका घात होता है इसलिये नृशंस है। (वहबंधपरिकिलेनवहुलं ) वध, बंधन और इनसे उत्पन्न परिक्लेश-परितापसे यह सदा भरा रहता है । अर्थात् प्रति समय यह अमात्य संताप का जनक होता है। (मरणभयपरिकिलेससंकिलिटुं) मरग के भय से जनित परम संताप से यह व्यात रहा करता है। अर्थां-पाप से जीव नरक निगोद आदि के अनंत दुःखों को भोगा करता है। इसलिये यह टी४२५ ४२ छ-" बीयं च" त्यादि - "बीय' भी मनाति नामनी लाना मानी छ-"पावएण मणेण " मशुम भनथी मशुम थाय छ-मे मशुम भनथी ०१ पापर्नु अपारी ४२ छ । ५५ " अहम्भियं" हुतिन न वाथी २५५३५ छ. " दारुणं" तीन मार्नु प६४ पाथी ६२४-वि५म. ट है ४४४२४ हाय छे. तथा "निसंसं" तेमा मात्माना हितनो धात याय छ तेथीते नशस छ. “ वहबंधपरिकिले सबहुलं" १५, धन भने तेमना हो . ભવેલ પરિકલેશ-પરિતાપથી તે સદા ભરેલ રહે છે, એટલે કે પ્રતિસમય તે मसहा सता५ पहा ४२ना२ डाय . " मरणभयपरिकिलेससंकिलिट" મરણના ભયથી ઉત્પન્ન થયેલ પરમ સંતાપથી તે વ્યાપ્ત રહ્યા કરે છે. એટલે કે પાપથી જીવ નરક નિગેટ આદિના અનંત દુઃખને ભેગવ્યા કરે છે. તે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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