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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याव पाणिभयजनक, 'संसारसायरं' संसारसागरं, वसन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः कीदृशं संसारसागरमित्याह-' अट्टिय अणालंबणपइहाणं' अस्थिताऽनालम्बनप्रतिष्ठानम् =अस्थितानाम् संयमानुष्ठानरहितानां न विद्यते आलम्बनम् अवलम्बः प्रतिष्ठान रक्षाकरणं यत्र स तथा तं असंयमिनामाधारवर्जितं त्राणवर्जितं चेत्यर्थः, तथा 'अप्पमेयं ' अप्रमेयम् असर्वज्ञेनाऽपरिच्छेद्यं 'चुलसीयजोणिसयसहस्सगुविलं' चतुरशीतियोनिशतसहस्रगपिलं चतुरशीतिलक्षयोनिव्याप्तं योनिनाम संख्यातत्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेकत्वविवक्षणादुक्तसंख्यासामञ्जस्यं बोध्यं तत्र गाथा यथाऐसे ( संसारसायरं ) संसार सागर में (वसंति) वसते हैं, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये । किस प्रकार के संसारसागर में बसते हैं सो कहते हैं-(अहि य अणालंघणपइट्ठागं) असंयमी जीवों के आलम्बन एवं रक्षा करने के साधनसे रहित (अप्प मेयं) कोल्हूका बेल चारों तरफ फिरनेसे पार नहीं पाता वैसे ही चतुर्गतिमें जन्ममरणसे पार नहीं पानेसे अप्रमेय, (चुलसीइजोणिसयसहस्तगविलं) चौरासीलक्ष जीव योनीयों से युक्त, (अगालोगं) प्रकाशवर्जित, एवं (अंधयारं) अंधकार से युक्त इस संसार में ( अणंतकालं जाब ) अनंतकाल तक (णिच्च) सदा (उत्तत्थ सुण्णभयसण्णसंपउत्ता) भयभीत बने हुए तथा किंकर्तव्यता से विमूढ हुए भय से एवं संज्ञा-आहार, परिग्रह एवं मथुन संज्ञाओं से सम्बद्ध बने हुए जीव ( उधिग्गवासवसहिं ) उद्विग्नों के वासस्वरूप इस संसार में (वसति) वसते हैं । जो अदत्तग्राही जीव हैं वे चतुर्गतिरूप तथा अनंत दुःखो से युक्त इस संसारसागर में अनंत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। चौरासी लाख योनियां इस प्रकार से हैंभाट मय-४, २२वा “स'सारसायरं” ससा२ १२मा “ वसंति" पास ४२ छे. तेया वा प्रा२ना संसार सागरम से छ ? “ अद्रिय अणालंबण-- पहसाणं" मसयभी छवाने माघार २५वानी तथा तेभर्नु २क्ष ४२वाना साधनाथी २डित, “ अप्पमेयं” असज्ञानी अपेक्षा प्रभेय, “चुलसीइजोणिसयसहस्सगुविलं” योर्याशी atm योनियाथी युत, “ अणालोगं " प्र रहित, भने " अंधयारं" माथी युत । संसारमा “अणतकोलं. जाव" मनन्त ॥ सुधी “ णिच्च” सहा “ उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्तो" ભયભીત બનેલ, તથા કિંકર્તવ્યતાથી વિમૂઢ બનેલ, ભય સંજ્ઞા, આહાર સંજ્ઞા, भैथुन सज्ञा, मने परिश्रय सभामाथी युक्त अनेस ! उबिगगावोसवसहिं " दिशोना-(भीयाराना) पास वा मा ससारमा “वसति" से छे. महत्ताहान લેનાર જી ચાર ગતિરૂપ તથા અનંત દુઃખોથી યુકત આ સંસાર સાગરમાં અનંત કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. ચેર્યાશી લાખ ચનિયે આ પ્રમાણે છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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