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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० सू० १०-११ मृषावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २१७ 'अणहि गयपुण्णपावा: अनधिगतपुण्यपापाः पुण्यपापजनितफलज्ञानविकलाः, 'पुणो वि' पुनरपि 'अहिकरण किरियापवत्तगा' अधिकरणक्रियाप्रवर्त्तकाः- अधिकरणं पापारम्भः तस्य क्रियाव्यापारः तस्य प्रवर्त्तकाः, 'अप्पणो परस्स य' आत्मनः परस्य च 'बहुविहं' बहुविधम् 'अणत्थं ' अनर्थ 'अवमदं ' अवमर्द = विनाशं ' करेंति' कुर्वन्ति ॥ सू० १० ॥ पुनः किं कुर्वन्ती ? त्याह- ' एवमेवे ' त्यादि । मूलम् - एवमेव जंपमाणा महिसे सूयकरे य सार्हेति घाय-गाणं, ससपसयरोहिसे य साहति वागुराणं, तित्तिरवट्टकलावे कविजल - कोयगे, य सार्हेति सउणीणं, झसमगरकच्छ भे य सार्हेति मच्छियाणं, संखंके खुलए य साहेति मगराणं, अयगर-गोणस - मंडलि दव्वीकर मउली य साहेति वालियाणं, गोहा सेहा य सलग सरडए य साहति लुद्वगाणं, गयकुल वानरकुले य सार्हेति पासियाणं, सुकवरहिणमयणसालकोइल हंसकुले सारसे य साहति पोसगाणं, वधबंधजायणं च सार्हेति गोम्मियाणं, धणधन्नगवेलए य सार्हेति तकराणं, गामनगर पट्टणे य सार्हेति चारगाणं पारघायग पंथघायगे साहेति गंथि भेयाणं, कयं च चोरियं णगरगुत्तियाणं सार्हेति लंछणं निल्लंडणबोलते हैं । (अणहिगयपुण्णपावा) तथा जो पुण्य और पाप के फल ज्ञान से रहित होते हैं । तथा (पुणो वि अहिगरण किरियापवत्तगा ) बार २ पापारंभ की क्रियाओं के प्रवर्तक होते हैं वे . ( अप्पणी परस्स य ) अपना और पर का ( बहुविहं ) अनेकविध ( अणत्थं ) अनर्थ और ( अवम) विनाश (विराधना ) ( करेंति) करते हैं |सू-१०॥ " તથા જે પુન્ય અને પાપના ફળજ્ઞાનથી રહિત હાય છે, તથા पुणो वि अहिगरण किरियापवत्तगा ” वारंवार पायारलनी डियागोनां अवत! होय छे, ते " अपणो परस्स य " पोतानु भने पारअनु " बहुविहं ” ने अरे “अणत्थं” अडित मने “अवमद्द" विनाश "विराधना "करे तिरे छे ।सू १०॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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