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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३९० व्याकरणसूत्रे " वचनाध्ययनोक्त विशेषणानि यथायोग्यानि संग्राह्याणि । चिरपरिचियं ' चिरपरि चितम् =अनादिकालादनुभूयमानम् ' अणुगयं ' अनुगतं = प्राणिनां पृष्ठतो लग्नम्, ' दुरंतं ' दुरन्तम् = दुःखावसानम्, 'त्तिवेमि' इति ब्रवीमि = एतद जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वामिवाक्यम् || म्रु० २१ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादि पञ्चाद्वारेषु अदत्तादानाख्यं तृतीयधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ ३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " यावत् ' शब्द से द्वितीय अलीक वचन संबंधी अध्ययन में जो विशेपण कह गये हैं उनका यहाँ यथायोग्यरूप में संग्रह कर लेना चाहिये । यह अदन्तादान ( चिरपरिचियं ) अनादिकाल से जीवों के अनुभव में आ रहा है (अणुगयं ( मिथ्यात्व ) के कारण यह आत्मा के पीछे लगा हुआ है । ( दुरंतं) दुःखप्रद ही इसका परिणाम - फल है । ( तिवेमि ) ऐसा मैं कहता हूं। इस प्रकार से यह जंबू स्वामी के प्रति सुध सुधर्मा स्वामी ने कहा है || सू० २१ ॥ ॥ तीसरा आस्रव - ' अधर्म ' द्वार समाप्त ॥ ખીજાની વસ્તુનું હરણ કરાવનાર લાભ, વગેરે સઘળી ખાખતેનું મૂળ કારણુ या महत्ताहान छे, अड्डी " यावत् " शब्दथी अशी वयन विषेना श्रीम અધ્યયનમાં જે વિશેષણેાના ઉપયાગ કરાયા છે, તેમના સગ્રહુ અહીં યાગ્ય रीतेश्री सेवानी छे, या सत्ताहान " चिरपरिचियं " मनाहि अजथी भवना अनुलवभांभाषी २ड्यु' छे, (अणुरायं) मिथ्यात्वने अरणे ते आत्मानी पाछा सांगेसु छे, (दुरतं) तेनु इज-परिणाम दु:महायी छे, (त्तिबेमि) भेवु डु उड छु, या प्रमाणे सुधर्भास्वाभीगे स्वामीने उड्डयु', ॥ सु, २१ ॥ ॥ श्रीले सास्त्रव - 6 अर्धभ' द्वार समाप्त ॥ , For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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