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प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका-'परतत्तिवावडाय' परतृप्तिव्यापृताश्च = परप्रसन्नताकरणतत्पराः अथवा परतप्तिव्यामृताः परचिन्तापरायणा वा 'असमिक्खियभासिणो' असमीक्षितभाषिणः अपलोचितवक्तारः 'उपविसंति' उपदिशन्ति आज्ञापयन्ति सहसा
अकस्मात् अकारणमेवेत्यर्थः तदेवाह-यत् 'उहा' उष्ट्राः प्रसिद्धाः 'गोणा' गावः बलीवः, गवयाः गोसदृशा यन्याः ' रोझ' इति भाषा प्रसिद्धाः पशुविशेषाः 'दमंतु ' दम्यतां-एते शिक्ष्यन्ताम् । तथा 'परिणयवया' परिणतवयसः-तरुणाः 'अस्सा' अश्वाः 'हत्थी' हस्तिनः प्रसिद्धाः गवेलकाः-मेषाः 'कुक्कुडा' कुक्कुटाश्च-पतीताः 'किज्जंतु' क्रीयन्तां मूल्येन गृह्यन्तां 'किणावेहय' क्रापयत= पूर्वोक्तानामेव क्रयणं कारयत विक्केह' विक्रीणीध्वं-विक्रयं कुरुत ‘पचह' पचत-पाकं कुरुततथा 'सयणस्स ' स्वजनाय ' देह' दत्त-मांसादिकं दीयतां
फिर भी कहते हैं-'परतत्ति' इत्यादि
टीकार्थ-(परतत्तिवावडा य ) जो दूसरों को प्रसन्न करने में तत्पर रहते हैं, अथवा पर को चिन्ता में परायण रहा करते हैं वे ( असमिक्खियभासिणो ) विना विचारे ही बोल दिया करते हैं, इस बात का वे विचार नहीं करते हैं कि हमारे इन वचनों से दूसरे प्राणियों को कष्ट होगा, (सहसा उदिसंति ) विना कारण के ही यों दूसरों से कह देते हैं कि तुम लोग ( उट्टागोणागवया दमंतु ) ऊँटों को, बैलों को तथा रोझों को दमनकरो-अच्छी चाल चलना सिखलाओ ( परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलका कुक्कुडा किजंतु ) तरुण, घोड़े, हाथी, मेष, कुकुट, इन जानवरों को स्वयं खरीदो और (किणावेह ) दूसरों को खरीदवाओ तथा ( विक्केह य ) ये वो और ( पचह ) ओदनादि पकाओ ( सयणस्त
ते विषे ७ ५ सूत्रा२ ४ छ- " परतत्ति” त्या.
टोडार्थ-." परतत्ति वावडाय" रे flon सोओने मुश ३२वाने मातुर डाय , अथवा पा२४ी थि-alvil प२राया २७ थे, ते " असमिक्खियभासिणो" विया२ ४ा विना मोट्या ४२ छ. तो मेरे विया२ ४२i नथी , सभा 241 क्यनाथी मी याने ४७८ पडायशे. “ सहसा उवदिसंति" ती विना २९५ ullan ने 3 छ । तमे “ उट्टागोणा गवया दमंतु " टोd, मोनु तथा शोनुं मन ४२१-सारी या याता शिमो. " परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलका कुक्कुडा किज्जंतु ” युवान, घोडा, साथी धेट ५४d, माहि तमे ते मीही अने “किणावेह " oilen पासे
त्या.
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