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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ येन भावनालोकं वदन्ति तिन्निरूपणम् १७९ लघुस्वका:=पुच्छात्मानः, ' असचा ' असत्याः सत्यविमुखाः 'गारविया ' गौरविकाः ऋद्धयादि गौरवयुक्ताः, असञ्चट्ठावणाहिचित्ता' असत्यस्थापनाधिचित्ता:असत्यानाम्-असदर्थानां स्थापनायां प्ररूपणायामधिचित्तं येषां ते तथा असत्यार्थमण्डनपरा इत्यर्थः, ' उच्चच्छंदा' उच्चो-महान् स्वात्माप्रशंसापरः छन्दा=अमिप्रायो येषां ते तथा स्वात्मप्रशंसापरायण इत्यर्थः, 'अणिग्गहा' अनिग्रहाः= अवशेन्द्रियाः ' अणियता' अनियताः अनियमवन्तः छन्देन स्वाभिमायेण 'मुक्कवाया' मुक्तवाचा यथा तथा भाषिणः अथवा 'वयमेव सिद्धवादिनः' इति वदन्ति, के वदन्ति ? 'जे ' ये ' अलियाहिं ' अली केभ्योऽसत्येभ्यः 'अविरया' अविरताः अनिवृत्ताः भवन्ति ॥ मू-३॥ तथा-'अवरे नत्थिगवाइणो' इत्यादि मूलम्-अवरे नत्थिगवाइणो वामलोगवादी भणंति, नस्थि जीवो, न जाइ इह परे वा लोए, नय किंचि वि फुसइ पुनपावं, नस्थिफलं सुकयदुक्कयाणं । पंचमहाभूइयं सरीरं भासंति आपको तुच्छ मानने वाले मनुष्य, (असच्चा ) सत्य से विमुख रहने वाले मनुष्य, (गारविया ) ऋद्धयादि के गौरव से युक्त बने हुए मनुष्य, (असचट्ठावणाहिचित्ता ) असत्यपदार्थ की प्ररूपणा करने वाले मनुष्य, (उच्चच्छंदा ) अपने आपकी प्रशंसा करने वाले मनुष्य, (अणिग्गहा) जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं है ऐसे मनुष्य, (अणिययाछंदेणं ) नियम से रहित मनुष्य, ( मुक्वाया ) यथातथा बोलने वाले मनुष्य, और (जे य) जो मनुष्य ( अलियाहिं ) असत्यभाषण से ( अविरया) विरति रहित (भवंति ) होते हैं वे जो मन में आता है सो बोल दिया करते हैं । इस प्रकार के बोलने में अलीक भाषण का दोष लगा करता है ॥सू-३॥ भनुष्यो, “ असच्चा" सत्यथा विभुम २उना२ भनुष्यो, “ गारविया ” ऋद्धि माहिना भलिभानथी युक्त अनेस मनुष्यो, “असच्चद्वावणा हि चित्ता" अस. त्य पदार्थ नी । प्र३५९! ४२॥२ मनुष्यो, “ उच्चच्छंदा " मा५ ५15 ४२॥२ सी, “ अणिग्गहा" भनी छन्द्रियो आमा नथी तेवा सोडी, “ अणिययाछदेणं" नियम विनानो भनुष्यो-मनियमित सो, “मुक्कवाया " म तेम मासना। सी, भने “जे य" रे मनुष्य " अलियाहिं " असत्य मापाशुथा "अविरया" वि२ति २हित “ भवंति" डाय छ, ते हो। मनमा आवे तम બેલી નાખે છે. તે રીતે બેસવાથી અસત્યભાષણને દેષ લાગ્યા કરે છે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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