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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०२ सु०७ चतुर्थी भावनास्वरूपनिरूपणम् ६९९ ' 1 तपः संयमं चापि ' मुएज्जा ' मुञ्चति परित्यजति । तथा-भीतः ' भर 'भारम् = कार्यभार ' न नित्थरेज्जा' न निस्तारयति=न निर्वाहयति । तथा 'सम्पुरिसनिसेवियं सत्पुरुषनिषेवितं च ' मग्गं ' मार्गं भीतो न ' समत्यो ' समर्थः = पर्याप्तः ' अणुचरिउं ' अनुचरितुम् सत्पुरुषासेवितं मार्ग भयत्रस्तो न गन्तुं शक्नोतीति भावः । ' तम्हा ' तस्माद् हेतोः ' भयस्स वा ' भयस्य भीते f ' वाहिस्स ' व्यावे:=क्रमेण प्राणापहारिणः कुष्ठादे व ' रोगस्स' रोगस्य = शीघ्रतया प्राणापहारिणो ज्वरादे व ' जराए' जरायाः वा मच्चुस्स ' मृत्यो of ' अन्नस्स ' अन्यस्य = एभ्य इतरस्य वा एवमाइयस्स ' एवमादिकस्य - एवं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बना देता है, तथा ( भीओ तवसंजमं पिहुमुएज्जा) वह तप संयम का भी परित्याग कर देता है । ( भीओ य भरं न तित्थरेज्जा ) भीत मनुष्य शक्ति से इतना अधिक विहीन बन जाता है, अर्थात् उसमें इतनी अधिक मानसिक दुर्बलता आ जाती है कि जिसकी वजह से वह किसी कार्यभार को वहन नहीं कर सकता, अर्थात् किसी भी काम को वह पूरा नहीं कर सकता । ( सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं भीओ न समत्थो अणुचरिडं ) सत्पुरुष जिस मार्ग का सेवन करते आये हैं उस मार्ग पर चलने के लिये भी वह बिचारा समर्थ नहीं हो सकता हैं। ( तम्हा न भीइयव्वं भयस्स वा वाहिस्स वा रोगरस वा ज़राए वा मच्चुस्स वा अन्नरस वा एवमाइयस्स ) इसलिये कीसी भी प्रकार के भय के, क्रम २ से प्राणों को अपहरण करनेवाली व्याधि के, अथवा कुष्ठादिके, शीघ्रता से प्रागों का अपहरण करनेवाले ज्वर आदि रोग के, वृद्धावस्था के, तथा मृत्यु के अथवा इन्हीं जैसी अन्य और कोई तवसंजमं पिहुमुएज्जा” ते तप संयमना पशु परित्याग उरी हे छे “भीओ य भरं न तित्थरेज्जा” भयलीत भाणुसो भेटसा गधा शक्तिहीन था लय छे, गोटो } तेनाभां 22 એટલી બધી માનન્તિક દુળતા આવી જાય છે કે જેના કારણે તે કાઈ પણ કાયના એજો ઉડાવી શરતે નથી. એટલે કે કોઈ પણ કામને તે પૂરું કરી શકતા નથી. " सप्पुरिस निसेवियं च मर्ग भीओ न समत्थो अणुचरिउ ” सत्पुरुषो ने भार्गनु' सेवन કરતા આવ્યા છે, તે માર્ગે ચાલવાને પણ તે સમ ખની શકતા નથી. 66 'तम्हा न भीइयव्वं भयम्स वा वाहिस्सवा रोगस्स वा जराए वा मच्चुरस वा अन्नरस वा एवमाइयस्स તેથી કોઇ પણ પ્રકારના ભયથી, ક્રમે ક્રમે પ્રાણાને હરી લેનાર વ્યાધિના, અથવા કુષ્ટાદિના, શીવ્રતાથી પ્રાણ હરી લેનાર જવર આઢિ રાંગના, વૃદ્ધાવસ્થાના તથા મૃત્યુના અથવા તેમના જેવી કોઈ પણ પ્રકા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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