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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. २ सू० ३ येन भावनालीक वदन्ति तनिरूपणम् १७५ कीशास्ते पापिन इत्याह-' असंजया' असंयताः अवशेन्द्रियाः ‘अविरया' अविरताः पापकर्मभ्योऽनिवृत्ताः पापकर्मरता इत्यर्थः, 'कवडकुडिलफड्डयचटुलभावा' कपटकुटिलकटुकचटुल भावाः कपटेन-छलेन हेतुना कुटिला-बक्रः, कटुकः =अनिष्टः चटुला तृष्णया चञ्चलो भावः परिणामो येषां ते असत्यभाषणजनित भावि नरकनिगोदाधनन्तदुःखभोगिनो जना एवासत्यं समाचरन्तीत्यर्थः । तथा 'कुद्धा ' क्रुद्धाः क्रोधिनः, 'लुदा' लुब्धाः-लोभिनः, क्रोधात् लोभाच्चासत्यं बदन्ति एवं मुग्धादयोऽपि अस्यैव-शास्त्रस्य प्रथमद्वारस्थ विंशतितमसूत्रपाठात् टीकार्थ-(तं च पुण अलियं केइ पावा वदंति) उस अलीक वचनको जो पापी जन होते हैं वे ही बोलते हैं सब प्राणी नहीं। क्यों कि जो साधुजन होते हैं वे इस अलीक वचन से सदा दूर रहते हैं। असत्यभाषण करने वाले कैसे होते हैं यह बात सूत्रकार इन वक्ष्यमाण विशेषणों द्वारा अथ समझाते हैं- असंजया ) वे असंयत होते हैं-इन्द्रियां उनके वश में नहीं होती हैं । (अविरया ) अविरत होते हैं-पापकर्मों से निवृत्त नहीं होते हैं, अर्थात्-वे पापकर्मों में निरत रहते हैं । (कवडकुटिलकडुयचटुलभावा) वे कपटी होने से कुटिल-वक्र, कटुक-अनिष्ट, और चटुलतृष्णा से चंचल हैं परिणाम जिनका ऐसे होते हैं, अर्थात्-असत्यभाषण जनित पाप उदय से भावी नरकनिगोद आदि के अनंत दुःखों को भोगनेवाले मनुष्य ही असत्य वचनों को बोला करते हैं । (कुद्धा लुद्धा) वे क्रोधी होते हैं, लोभी होते हैं, अर्थात्-क्रोध एवं लोभ से असत्यभा "तं च पुण अलिय केइ पावा वदंति " " असंजया " ते मसत्य वयन પાપી લેકે જ બોલે છે બધા જ બેલતાં નથી, કારણ કે સજ્જને તે તે અલીક વચનથી સદા દૂર રહે છે. અસત્ય ભાષણ કરનાર લેકે કેવાં હોય છે, તે વાતને સૂત્રકાર નીચે પ્રમાણેનાં વિશેષણ દ્વારા સમજાવે છે. टी-“असंजया" ते या मयत डाय-न्द्रियो भने १५ जाती नथी. " अविरया" मविरत डाय छ-तेगा पा५४था निवृत्त यता नथी, मेट तेगा पाप ४ दान २९ छ. " कवडकुटिलकडुयचटुलभावा"तेम। કપટી હોવાથી કુટિલ-વક, કટુક-અનિષ્ટ, અને ચટુલ-તૃષ્ણાથી ચંચળ વૃત્તિવાળા હોય છે, એટલે કે અસત્ય ભાષણ જનિત પાપના ઉદયથી ભાવી નરક નિગોદ અનંત દુઃખને ભેગવનાર મનુષ્ય જ અસત્ય વચને બેલ્યા કરે છે. "कुद्धा लुद्धा " ते औधी डाय छे तथा सोली हाय छ. मेटसीध मने લેભથી અસત્ય વચને બેલે છે. એ જ પ્રમાણે મુગ્ધ આદિ વિશેષણોથી યુક્ત For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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