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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुपर्शिनी टीका अ० ३ सू० ४ कोमुनिरदत्तादानाविधतमागधयति ? ७३५ चोसराध्ययनभने-" वेयावच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वेयापचेणे तित्थयर नामगोयं कम्मं निबंधइ ॥" ( उत्त०अध्य, २९) टीकार्थ-'न य' न च 'अचियत्तस्य' अमीति कस्स-भीतिरहितस्य प्रतीतिरहितस्य वा साध्यागमनमनिच्छत इत्यर्थः, 'घरं ' गृह 'पविसइ' प्रविशति, न च अप्रतीतिकस्य ' भत्तपाणं' भक्तपानं 'मेण्हइ' गृह्णाति, न च अनीतिकस्य अप्रतीतिकस्य वा पीठफलकशय्यासंस्तारकास्त्रपाइकम्बलदण्डकम्बलरजोहरणनिषद्याचोलपट्टकसदोरक मुग्ववत्रिका पादमोञ्छनादि भाजनभाण्डोपध्युपकरणं, ज्ञान की अविना नाविनी है। तीर्थकर प्रकृनि नियमतः केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली होती है, इसलिये ज्ञानार्थी होकर वैधावृत्य करता है ऐसा अर्थ हमारा निर्दोष ही है। उत्तराध्ययन सूत्र में यही बात कही है-" यावच्चेणं भंते! जीवे किं जगया ? वेयावच्चेणं तित्थयर नामगोयं कम्मं निबंधइ" ( उत्तराध्य. अ. २९ घोल ४३) तथा जो साधु (न य अचियत्तम्स घरं पविसइ) साधु के अपने घर पर आने से अग्रीति अथवा अप्रतीति-अविश्वास घाला होता है वह अचियत्त कहलाता है-ऐसे व्यक्ति के घर में साधु प्रवेश नहीं करता है, तथा (न 7 अचियत्तसा भत्तपाणं गिण्हइ ) उस अप्रीति और अप्रतीति-अविश्वास वाले के घर से भक्त पान नही लेता है, और ( न य अचियत्तस्स पीढ फलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबल दंडग रओहरण निसज्ज चोलपगमुहपोत्तियपायपुंछणाइमायणभंडीवहि उवर्गरणं सेवइ ) न उब अप्रीति और अप्रतीति वाले के पीठ,फलक,शय्या, નની અવિનાભાવિની પ્રકૃતિ છે. તીર્થકર પ્રકૃતિ સવાભાવિક રીતે જ કેવળજ્ઞા નને ઉત્પન્ન કરનારી હોય છે, તેથી જ્ઞાનાર્થી થઈને વૈયાવૃત્ય કરે છે એ અમે દર્શાવેલે અર્થ નિર્દોષ જ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ જ વાત કરી छ-" यावच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयह ? वेयावच्चेणं तित्थयरमगोय कम्म निबंधइ " { उत्तराध्य. २५. २८ मारा ४३ ) तथा साधु "न य अचियत्तरस पर पविसई" साधु पाताने ३२ भापायी यति सप्रीति -424 मविश्वास વાળા થાય છે તે અચિયત્ત કહેવાય છે–એવી વ્યક્તિના ઘરમાં સાધુ પ્રવેશ ४२ता नथी, तथा “ न य अचियत्तस्स भत्तपाणं गिण्हइ" ते मप्रीति भने अविश्वासाना घरेथी भाडा२५ वेता नथी, भने “ न य अचियत्तस्स पीढफलग सेज्जासंथारगवत्थपायकंबलदंडगरजोहरणनिसेज्जचोलपट्टगमुहपोत्तिय पायपु. छणाइभायणभंडोवहिउागरण सेवइ " ते मप्रीति भने अविश्वास-पाजाना For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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