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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका म०४ स०३ ब्रह्मचाराधनफलम तथा-' सब्बर मुहमहोदहितित्थं । सर्व मुद्रमहोदधिलीर्थम् -सर्वे च ते समुद्राः सर्व समुद्रास्तेषु महान उदधिःयाभूरमणः समुद्रातत्तुल्य विशालत्वात्संसारोऽपि महोदधिस्तस्य तीर्थ मव-पारगमनाय नौके व यत्तत्तथाऽस्ति ॥ १ ॥ __'तित्थगरेहिं ' इत्यादि-'तित्यगरेहिं 'तीर्थकरैः जिनैः ‘सुदेसियमगं' सुदेशितमार्गम्-सुदेशिता सुदर्शितः मार्गः=गुप्त्यादि तत्पालनोपायो यस्मिंस्ततथा, तथा-'नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं' नरकतिर्यविवर्जितमार्ग-नरकस्य नरकगतेः, तिरमा तिर्यगतेश्च विवर्जित-प्रतिरोधितो मार्गो गायेंज तादृशम् । तथा-' सयपवित्रसुनिम्मियसारं' सर्वपवित्रसुनिर्मितसारं सर्वपवित्राणि-सर्वाणि पावनानि मुनिश्तिानि-सुविहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, सकलव्रत सर्प उसके लिये हार जैसा बन जाता है और विष भी सुसाधु जैसा हो जाता है-जो नौ कोटि से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक होता है। यह ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है जो शत्र भी मित्र बन जाता है। (सव्वसमुदमहोदहितित्थं) समस्त समुद्रों में अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्र एक बहुत विशाल समुद्र है-इसके जैसे विशाल होने से संसार भी एक महोदधि जैसा है, उससे पार होने के लिये यह ब्रह्मचर्य एक नौका के समान है ॥ १॥ (तित्थगरेहिं सुदेसियमग्गं) तीर्थकर भगवंतो ने इसके पालने का गुप्ति आदि रूप उपाय कहा है। ( नरगतिरिच्छविवजियमगं) इसके प्रभाव से नरकगति और तियश्चगति का मार्ग रुक जाता है (सवपवित्तसुनिम्मियसारं ) तथा જે નવ પ્રકારે શુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને આરાધક હોય છે તેને માટે સાપ હાર જેવો બની જાય છે અને વિષ પણ અમૃત જેવું થઈ જાય છે. ब्रह्मययन ४ 24 प्रभाव छ : शत्रु पशु भित्र मनी लय छ, “ सव्वसमुरमहोदहितित्थं " Aani सोम आतिम २ १५ सूरमा समुद्र में । विm સમુદ્ર છે-તેને જે વિશાળ હોવાથી સંસાર પણ એક મહાસાગર જે છે, તેને પાર જવાને માટે આ બ્રહ્મચર્ય એ એક નૌકા જેવું છે ! ૧ છે "तित्थगरेहिं सुदेसियमग्गं" तीथ ५२ भगवानाये तन पालन माट गुप्ति माह Elu मतव्या छे. “ नरगतिरिच्छविवज्जियमगं" तेना प्रमाथी १२४गति मने तियतिने २ मी. नय छे. “ सव्वपवित्त सुनिमियसारं " मने तेना प्रभाव सौने प्रवित्र भने सारसूत मनावी ? छे, थेटसे 3 241 व्रत सघi ताने पवित्र १४ ४२नाइ छ. "सिद्धविमाणअवंगुयदारं " तथा मोक्ष गतिनु म मनुत्तर विमानानु वा तेनाथी 34 नय प्र १०० For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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