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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तिनिमिचा या दकाया तस्या अर्थ अयोजन तस्मै, ' इमं च ' इदं च-वक्ष्यमाण 'सुद्धं ' शुद्ध निर्दोषं 'उछ' उञ्छ-स्तोकं स्तोकं ग्रहणरूपमशनादिकं ' गवेसयव्यं ' गवेषितव्यम् , यथा-लूतानक्षेत्रात्कगादानं तथैव साधुनाऽपि गृहस्थार्थ निष्पादितमन्नादिकस्तोकं स्तोकं गवेषणीयमिति भावः कीदृशम्-उच्छं गवेषितव्यम् ? इत्याह-'अकयं ' अकृतं साधु निमित्त मनिष्पादितम् , 'अकारियं' अकारितम्-अन्यद्वारा न कारितम् , तथा-'अगाहूयं ' अनाहतम्-गृहस्थेन साधोरनिमन्त्रणपूर्वकं दीयमानम् , ' अणुद्दिटुं' अनुद्दिष्टम् औद्दे शिक्षादि दोपवर्जितम् , तथा-'अकीयकडं' अक्रीतकृत-साधूनां कृते मूल्येनानिष्पादितम् । एतदेव वर्णयन्नाह-'नवकोडोहिं ' नकोटिभिः, न हन्ति १, न घातयति २, घ्नन्तं प्रयोजन के लिये ( इमं च ) इस वक्ष्यमाण (सुद्धं उंछं गवेसियव्वं) शुद्ध-निर्दोष, आहार आदि को उंछ थोड़े २ रूप में गवेषगा करना चाहिये, अर्थात् जिस प्रकार काटे गये खेत से कगों का आदान किया जाता है उसी प्रकार साधु को गृहस्थ ने अपने लिये बनाये हुए भोजन आदि में से थोड़ी थोड़ी मात्रा में उसके यहां से आहार आदि लेना चाहिये। आहारादि ( अकयं ) साधु के निमित्त उसने नहीं बनाया हो और (अकारियं) न दूसरों से उसने बनवाया हो (अमाहुयं ) बुलाकर-अर्थात्-निमंत्रण करके जो न दिया जाय, (अणुट्ठि) औद्देशिक आदि दोषों से जो जित हो, तथा (अफीयकडं ) साधुओं के निमित्त मूल्य देकर जो नहीं खरीदा गया हो तथा (नव कोडिहिंपरिसुद्धं ) नवकोटियों से अर्थात् नौ प्रकार से जो परिशुद्र हो, अर्थात् जिस आहार में साधु के निमित जीवों को हिंमा नहीं हुई हो, न भाट (इमं च ) इसवक्ष्यमाण, (सुद्धं उंछ गवेसियव्वं ) शुद्ध, निषि माड२ આદિની શેડા થોડા પ્રમાણમાં ગવેષણા કરવી જોઈએ, એટલે કે જેમ વણાયેલ ખેતરરમાંથી કણેનું આદાન કરાય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુએ, ગૃહસ્થ દ્વારા પિતાને માટે બનાવાયેલ ભેજન આદિમાંથી થોડાં થોડાં પ્રમાણમાં આહાર माह सेवनध्य. तेथे ते २६ ( अकयं) साधुने माटे मनाय i न नही, मने (अकारियं) ulonनी पासे मनावराच्या डावा मे नही. ( अणायं) मासावीने मेट ते निमत्रीने रे न अपाय, (अणुविद्र) मोहशिमहिषाथी रे हित डाय, तथा (अकीयनडं ) साधुने भाट भूक्ष्य मापाने ते भरी हायसन य, त। ( नवकोडिहि परिसुद्धं ) नोटीस વડે-નવ પ્રકારે જે પરિશુદ્ધ હોય, એટલે કે તેણે સાધુને નિમિત્તે બીજા પાસે હિંસા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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