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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् ७१३ मिता=परिमाणरहिता, अनन्ता=अक्षया या तृष्णा-स्पृहा-विद्यमान व्याव्योच्छा, तयाऽनुगते ये महेच्छे-अविद्यमानद्रव्यलाभविपये महेच्छायुक्ते मनोवचने मनोवा णी च, ताभ्यां यत् कलुपंपरधनविषयत्वेन पापरूपम् आदानं ग्रहणं तत्सुनिगृहीतं -सुनियन्त्रितं यत्र तम् , तथा-' सुसंजामियमणहत्थपायनिहुयं' सुसंयमितमनोह. स्तपादनिभृतं-सुसंयमितेन सम्यगनियन्त्रितेन मनसा हस्तौ पादौ च परद्रव्यादानव्यागारात् निष्टतौ-उपरतौ यत्र तत् । उक्तविशेषणद्वयेन परद्रव्यादाने मनोवाकायनिरोधः प्रदर्शितः । पुनः कथंभूतगिरम् ? इत्याह-निग्गथ' निग्रन्थ-निर्गतो बाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्तत् , बाह्यभ्यन्तरग्रन्धिरहितगियः, तथा- डिर्ग' द्रव्य के अव्यय होने की जो अपरिमित एवं अक्षय स्पृहालालसा होती है वह, तथा इस स्पृहा-लालसा-से जो बड़ी २ और अविद्यमान द्रव्य के लाभ विषयक इच्छाओं की परंपरा चलती है कि जिससे मनवचन की पर धन को लेने ग्रहण करने की जो कलुषित प्रवृत्ति होती रहती है वह सुनियन्त्रित हो जाती है । तथा जय मन की परधन को हरण करने की कलुषित विचारधारा सुनियन्त्रित हो जाती है फिर (सुसंजमियमणहत्य पायनिहुयं ) उस मन के नियन्त्रित होते ही परद्रव्य के ग्रहण करने के निमित्त जो हाथ पैरों का व्यापार होता है वह भी उपरत-बंद हो जाता है । इस तरह इन दोनों विशेषणों से यह कहा है कि इस महाव्रत के सेवन करने से, परद्रव्यहरा करने के लिये जो मनवचन और काय का व्यापार पहिले होता था वह सर्वथा बंद हो जाता है । ( अदत्तादानविरम गसंवर ) यह दत्तानुज्ञात संवर कैसा है सो कहते हैं-( निग्गंथं ) इस महाव्रत की आराधना से बाह्य और તથા તે લાલસાથી બીજા અવિદ્યમાન દ્રવ્યની પ્રાપ્તિ માટેની મોટી મોટી ઈચ્છાઓની જે પરંપરા ચાલે છે કે જેથી મન વચનની પારકાનું ધન લેવાની જે દેષપૂર્ણ પ્રવૃત્તિ ચાલુ રહે છે તેનું આ મહાવ્રતની આરાધનાથી નિયણું થાય છે, તથા જ્યારે પારકાનું ધન હરી લેવાની મનની કલુષિત વિચારધારા सुनियत्रित 25 गय छ त्यारे ' सुसंजमियमणहत्थपायनिहुयं " ते मनन નિયમન થતાં જ પારકાનુ દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવા માટે હાથ–પગની જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તે પણ બંધ પડી જાય છે. આ રીતે એ બને વિશેષણેથી એ દર્શાવવામાં આવ્યું છે કે આ મહાવ્રતનું સેવન કરવાથી પદ્રવ્ય લેવાને માટે મન, વચન અને કાયાની જે પ્રવૃત્તિ પહેલાં ચાલતી હતી તે તદ્દન બંધ પડી જાય છે. " अदत्तादानविरमणसंवर" । हुत्तानुज्ञात २ छेते हुवे हे छ“ निग्गंथ " ! महायतनी साराधनाथी माह अने यन्त२ परियड ६२ प्र० ९० For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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