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प्रश्नव्याकरणसूत्रे विराजितप्रशस्तलक्षणं निरोदयः =यज्रवद् विराजितं = मध्यपतलं प्रशस्तलक्षणं शुभलक्षणविशिष्टम् अति प्रतलत्या निर्गतमिवोदर यासां तास्तथा कृशोदर्य इत्यर्यः तिवलिबलियतणुनमियमज्झियाओ' त्रिवलिबलिततनुनमितमध्यिकाः = त्रिव लिभीः = उदरस्थरेखात्रयरूपामिः वलित१: = वलनयुक्त २ = तनुनमित४ = किश्चिदवनताः४, मध्यं = मध्यभागः कटिप्रदेशो यासां तास्तथा — उज्जुयसम सहिय जच्चतणुकसिणनिद्वआदेज्जलडहसुकुमालमउयसुविभत्तरोमराईओ' तत्र 'उज्जुय' ऋजुकानि समसंडिय' समानि-तुल्यानि संहितानि = घनानि 'जच्च' जात्यानि-स्वाभाविकानि 'तणु' तनूनि-सूक्ष्माणि 'कसिण' कृष्णानि 'निद्ध 'स्निग्धानि-अस्माणि 'आदेज्ज ' आदेयानि-लाघनीयानि 'लडह' इति सुन्दारागि 'सुकुमालमउय' सकुमारमृदुकानि अत्यन्त कोपलानि ' सुविभत्त' सुविभक्तानि यथास्थानशोभितानि च यानि रोमाणि तेषां राजयः = पञ्जयो यासां तास्तथा — गंगावत्तगदाहिणावत्ततरंगभंगररविकिरणतरुणवोहित उदरभाग वज के जैमा सुन्दर, अर्थात्-मध्य में पतला होता है । शुभ लक्षणों से विशिष्ट होता है । तथा अतिपतला कृश-होने के कारण अनुदर-निर्गन उदर जैसा होता है - अर्थात् ये कृशोदरी होती हैं । ( लिबलिबलियतणुननियमझियाओ ) इन का मध्यभाग उदरप्रदेश त्रिवलियों से वलित-युक्त - होता है। और तनुनमित - कुछ झुका हुआ सा रहता है। ( उज्जुयसमसंहिय जच्चतणु कसिणनिद्धआदेजर हमकुमालमउयमुविभत्तरोमराईओ ) इन की रोमराजि ऋजु-सरल, सम एकसो सहित घनीभूत, जात्य स्वाभाविक, तनु-पतली, कृष्ण-काली, निद्र-स्निग्ध, चिकनी-रुक्षतारहित, आदेयलाघनीय, लजह-सुन्दर सुकुमारमृदुक-अत्यंत कोमल तथा सुविभक्त. यथास्थान शोभित होती है। (गंगावत्तग-दाहिणावत्त-तरंग-भंशुर-रवि. મધ્યમાં પાતળે હોય છે. અને શુભ લક્ષણવાળ હોય છે, તથા અતિશય પાતળે હોવાથી અનુદર-પેટ જ ન હોય તેવું હોય છે. એટલે કે તે સ્ત્રીઓ इशारी डाय छे. " तिलिवलियतणुनमियमज्ज्ञियाओ" तेमनी मध्यमानS२ प्रदेश (लियो पा होय छ, भने सडे जुडेसो २ . " उज्जुय समसंहिय-जच्च-तणु-कसिण-निद्ध-आदेज्ज-लडह-सुकुमाल-मउय-सुविभत्तरोमराईओ" तेभनी शभ *तु-सरस, सम- मे सरी, सहित-धनीभूत, जात्य-स्वालाविर; तनु-पाती, जी, सुपाती, आदेय-वभागुवा योग्य, लडह. सं२ सुभा२, मृदुक-मति म त सुविमत-यथास्थान शामित डाय छ, ( गंगावत्तगदाहिणावत्त तरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहिय-अकोसायंतपउमगं
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