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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तत्र गुरूपदेशः, कर्मक्षयोपशमादि बाहयाभ्यन्तरं कारणमस्याः प्रमत्तभोगात्प्राणव्यपरोपगलक्षणहिंसापतिपक्षरूपं स्वरूपम् , स्वर्गापवर्गमाप्तितिलक्षणं च कार्यम् , इति । तथा-'ओहिजिणेहिं' अधिजिन-विशिष्टावधिज्ञानिभिः ‘विण्णाया ' विज्ञाता= भेदप्रभेदैविदिता, तथा ' उज्जुमईहिंवि' ऋजुमतिभिरपि-मननं मतिः-संवेदनमित्यर्थः, ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिबुद्धियेषां ते ऋजुमतया अर्धतृतीयाइगुल. न्यूनमनुष्यक्षेत्रवति संज्ञि पश्चेन्द्रियमनोद्रव्यप्रत्यक्षीकरणहेतुमनःपर्यायज्ञानभेदवन्तस्तैरपि, दिवा' दृष्टा, तथा-' विउलमईहिं ' विपुलमतिभिः पर्यायशतोपेता चिन्तनीय घटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मति बुद्धि येषां ते विपुलमतयस्तैः विदिता= तरह देखी है-निश्चित की है। उन्हों ने इसके बाह्य और आभ्यन्तर कारण गुरुपदेश, कर्मक्षयोपशम आदि कहे हैं। इसका स्वरूपप्रमत्तयोग से जो प्राणव्यपरोपगरूप हिंसा का स्वरूप है उससे विपरीत स्वरूप प्रकट किया है । तथा स्वर्ग और अपवर्ग की प्राप्ति होना इसका कार्य कहा है। ( ओहिजिणेहि विगाया ) विशिष्ट अवधि ज्ञानियों द्वारा यह अहिंसा भगवती भेद प्रभेदों सहित विदित हुई है। तथा ( उज्नुमईहिं विदिट्ठा ) ऋजुपति मनः पर्यय ज्ञानियों द्वारा यह प्रत्यक्ष रूप में देखी गई है। जो विषय को सामान्यरूप से जानता है वह ऋजुमतिमनः पर्यय है । यहां पर ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये कि " जब ऋजुमति सामान्यग्राही है तब तो यह दर्शन ही हुआ उसे ज्ञान क्यों कहा क्यों कि यह सामान्यगाही है" इसका तात्पर्य इतना ही है कि वह विशेषोको जानता है पर विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता। अर्धतृतीयअइगुल न्यून-अर्थात् ढाई अंगुल कम मनुष्य क्षेत्र में रहे ન્તર કારણ ગુરૂપદેશ, કર્મક્ષપશમ આદિ બતાવેલ છે. તેનું સ્વરૂપ-પ્રયત્ત ગથી જે પ્રાણ હરનાર હિંસાનું સ્વરૂપ છે તેના કરતાં ઉલટું સ્વરૂપ પ્રગટ કરેલ છે. તથા સ્વર્ગ અને અપવર્ગની પ્રાપ્તિ થવી તે તેનું કાર્ય કહેલ છે. "ओहिजिणेहि विण्णाया" विशिष्ट मधिज्ञानीया द्वारा भगवती मासा मह, प्रमेह सात सभरवाभा मावस छ. तथा " उज्जुमईहि विदिवा " *तुमति मनः पयज्ञानीया बारा ते पत्यक्ष ३ सेवामा सावेत છે. જે વિષયને સામાન્ય રીતે જાણે છે તે બાજુમતિ મનઃ પર્યાય છે. અહીં એવી શંકા ન કરવી જોઈએ કે “જે જજુમતિ સામાન્યગ્રાહી છે તે તે “ દર્શન” જ ગણાય. તેને જ્ઞાન કેમ કહ્યું? કારણ કે તે સામાન્યગ્રાહી છે” તેને ભાવાર્થ એટલે જ છે કે તે વિશેષોને જાણે છે પણ વિપુલમતિ જેટલા विशेषाने तो नथी. “ अधतृतीयअङ्गुलन्यून" मेट से मढी मांग For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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