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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र 'आउक्खएणं' 'युः क्षयेण-नरकभवायुष्यक्षयेण 'उट्टिया समाणा' उद्धृत्ताः निस्सृताः सन्तः 'बहवे' बहवः कतिपया नरकजीवाः ‘तिरियवसहि' तिर्यग्वसति-तिर्यग्योनि गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति, यतो नरकानिःसृता अल्पा एव मनुज्येषूत्पद्यन्ते । कीदृशीं तिर्यग्योनिम् ? इत्याह -दुक्खुत्तरं' दुःखोत्तरां-दुःखप्रकर्षाम् अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणी कायस्थितिकत्वात्तस्याः, अत एव 'सुदारुणं' सुदारुणां=भीषणां नानादुखनिधानत्वात् , ' जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्टं' जन्ममरणजराव्याधिपरिवर्तनारघट्टां-जन्म-मरण जरा व्याधीनां परिवर्तनः पुनः प्रापणै अरघट इव-जलयन्त्र विशेष इव या सा तथा तां 'जलथलखहयरपरोप्परविहिसणपवंचं ' जल स्थल खचर परस्पर विहिंसनप्रपञ्चां-जलचर-स्थलचर अशातावेदनीयरूप दुःखों को (अणुभवित्ता) भोगकर (तो य) जब उस नरक से (आउक्खएणं ) नरकभवसंबंधी आयु के क्षय होने पर ( उव्वट्टियासमोणा) बाहर निकलते हैं तब ( बहवे ) उन में से बहुत से नारक जीव (तिरियवसहिं ) तिर्यश्च योनि को ( गच्छंति ) प्राप्त करते हैं, क्यों कि नरकों से निकले हुए बहुत थोड़े जीव ही मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं । वह तिर्यश्च योनि कैसी है इस बात को सूत्रकार कहते हैं कि वह योनि (दुक्खुत्तरं) अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण कायस्थितिवाली होने से दुःखों के प्रकर्ष से युक्त है। (सुदारुणं ) नाना दुःखों की निधान होने से सुदारुण-भयंकर है। (जम्मण-मरण-जरा-चाहि परियट्टणारहट्ट) जन्म, मरण, जरा एवं व्याधियों की पुनःपुनः प्राप्ति होने से अरहट जैसी है। तथा ( जलथल खहयरपरोप्परविहिंसणपवंचं) "दुक्खाई" मशात वहनीय ३५ दुः। “अणुभवित्ता " सागवान “ तओ य " ज्यारे ते न२४माथी “ आउक्खएणं " आयुष्यनो क्षय थाय छे त्यारे “ उव्वट्टियानमाणा" मा२ नीचे छ. त्या२।६ “ बहवे" तेमनामाथी ag! २॥ न॥२४ी 4 " तिरियवसहिं" तिर्य य योनिमा “गच्छंति" नय छ, ॥२६५ કે નરકમાંથી નીકળેલા બહુ થોડા છ જ મનુષ્ય ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે तिय योनि वा छे ते पात सूत्रा२ वि छ-ते योनि “ दुक्खुत्तर" मनન ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી પ્રમાણ કાળ સ્થિતિવાળી હેવાને લીધે દુઃખના sी छ. “ सुदारुण" विविध मार्नु धाम पाथी घgी ३४अय४२ छे. " जम्मण-मरण-जरा-वाहि परियट्टणारहट्ट" भ, भ२६१, १२॥ અને વ્યાધિઓની ફરી ફરીને પ્રાપ્તિ થવાને કારણે રહેટ જેવી છે. તથા " जलथलखहयरपरोप्परविाहसणपवंच ” मा ५२२५२ जयर, स्थण. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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