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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तथा-' सुयनाणीहिं ' श्रुतज्ञानिभिः श्रुतम्-आचाराङ्गादि, तद्वेदिभिरित्यर्थः, तथा-' मणपज्जवनाणीहिं ' मनःपर्यवज्ञानिभिः-मनसो मन्यमानमनोद्रव्याणां पर्यवः परिच्छेदो मनः-पर्यवः, स एव ज्ञानम् , मनःपर्यवज्ञानम् , तदस्ति येषां ते तथोक्तास्तैः, नथा-' केवलनाणीहि ' केवलज्ञानिभिः केवलमेकमसहायमनन्तं परिपूर्ण यद् ज्ञानं तत्केवलज्ञानं, तदस्यास्ति येषां ते तथोक्ताः, तथा-' आमोसहिपत्तेहिं ' आमौंपधिप्राप्तः,-आमशः शरीरसंस्पर्शः, स एवौषधिः-सर्वरोगापहारित्वात्-तपश्चरणप्रभादो लब्धिविशेषस्ता प्राप्ता ये ते तथोक्तास्तैः, तथा'खेलोसहिपत्तेहिं ' लेष्णोपधिमाप्तः- लेष्मा एव ओषधिर्भवति यत्र लब्धौं सा इन्द्रिय और नो इन्द्रिय इनले उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसका नाम आभिनियोधक ज्ञान है। 'अभि' और 'नि' ये दो उपसर्ग यह प्रकट करते हैं कि यह ज्ञान सन्मुख रखे हुए नियमित क्षेत्रवर्ती पदार्थ को ही जान सकता है। इस आभिनियोधिक ज्ञानियों द्वारा मतिज्ञानधारियों द्वारा, तथा आचारांग आदि श्रुत के जानने वालों द्वारा, तथा मनः पर्यवज्ञानियों द्वारा,-मनवाले-संज्ञि प्राणी-किसी भी वस्तु का चिन्तवन मनसे करते हैं । चितवन के समय चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चितवनकार्य में प्रवृत्तमन भिन्न २ आकृतियों को धारण करता रहता है वे आकृतियां ही मन की पर्याये हैं, और उन मानसिक आकृतियों को साक्षार जानने वाला ज्ञान भनापर्यव ज्ञान हैं, इस मनः पर्यव ज्ञान को धारण करने वाले मुनिजनों द्वारा, तथा केवल ज्ञानियों द्वारा-असहाय, एक, अनन्त, परिपूर्ण यह केवल शब्द का अर्थ है, ऐसा जो ज्ञान होता हैं वह केवल ज्ञान है, यह ज्ञान जिस आत्मा में होता है उसका नाम केवलज्ञानि है ऐसे केवल ज्ञानि आत्माओं द्वारा न्द्रिय 43 Gura थयेटर ज्ञान छ तेनुं नाम शामिनिमाय ज्ञान छ “अभि" भने “ नि ('मेमने ७५स से प्रगट ४२ छे ते ज्ञान सन्भु रामेस નિયમિત ક્ષેત્રવતી પદાર્થને જ જાણી શકે છે. તે અભિનિધિક જ્ઞાનીઓ દ્વારા, મતિજ્ઞાનધારીઓ દ્વારા તથા આચારાંગ આદિ સૂત્રોના જાણકાર દ્વારા તથા મન પર્યય જ્ઞાનીઓ દ્વારા-મનવાળ-સંજ્ઞી પ્રાણી--કોઈ પણ વસ્તુનું મન વડે ચિતવન કરે છે. ચિત્તવનને વખતે જેનું ચિત્તવન કરવામાં આવે છે તે વસ્તુના ભેદ પ્રમાણે ચિન્તનકાર્યમાં પ્રવૃત્ત થયેલ મન જુદી જુદી આકૃતિને ધારણ કરતું રહે છે તે આકૃતિ જ મનની પર્યા છે. અને તે માનસિક આકૃતિને પ્રત્યક્ષ જાણનાર જ્ઞાન મન:પર્યવ જ્ઞાન છે, તે મનઃ પર્યય જ્ઞાનને ધારણ કરનાર મુનિઓ દ્વારા, તથા કેવળજ્ઞાનીઓ દ્વારા–અસહાય, એક. અનन्त, परिपूर्णते “ वर" शहना अर्था छ, मेरेशान छ तेने पण. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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