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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मान्यैः, एतादृशैः ' जिण वरिंदेहिं ' जिनवरेन्द्र = जिनाः - अवधिज्ञानमनः पर्यय - ज्ञानघराचस्थजिना:, तेषु वराः - श्रेष्ठाः केवलिनस्ते पामिन्द्रास्तीर्थंकर नाम कमेदिवर्तित्वाद्ये तैः 'एस' एपा= पुष्पफलकन्दमूलादिसर्वधान्यरूपा 'जोणी' योनिरुत्पत्तिस्थानम्, 'जणाणं ' जगताम् = प्राणिनां 'दिवा' दृष्टा केवलेज्ञानेन, तस्माद - कारणत्तेषाँ प्राणिनां ' न कप्पड़' न कल्पते ' जोणीसमुच्छित्ति' योनिसमुच्छेदः इति = योनिध्वंस कर्त्तुमिति, 'हि ' यतः - ' तेण न हेतुना एतानि पुष्पफलादि सर्वधान्यानि ' समणसोहा ' श्रमणसिंहाः श्रमणेषु सिंहाः मुनिश्रेष्ठा: 'वज्र्जति वर्जयन्ति न संघट्टयन्ति ।। सू० २ ॥ ' लो महिहिं ) तीनों लोकों में मान्य ऐसे ( जिणवरेहिं जिनवरेन्द्रोंनेअवधिज्ञानी और मनः पर्ययज्ञानीरूप छद्मस्थजिनों में श्रेष्ठ जो केवली भगवान है, उनके भी तीर्थकर नामकर्म के उदय से युक्त होने के कारण जो इन्द्र बने हुए है ऐसे जिनवरेन्द्रों ने (एस) से पुष्प, फल, कन्द, जुल, आदि सर्वधान्य (जणाणं जोणीदिट्ठा ) जीवों की उत्पत्तिस्थान होने से योनिरूप देखे हैं । इसलिये सकल संयमी जन को (न कप्पइजोधी समुच्छि दोत्ति ) जीवों की योनिरूप पुष्पफलादिको का ध्वंस करना कल्पित नहीं है । ( तेण हि ) इसलिये ये पुष्पफलादि समस्त धान्य ( समणसिंहा ) मुनिसिंहों के लिये (बज्जेति ) वर्जनीय हैं अतः इसी कारण वे इनकी संघटना नहीं करते हैं। भावार्थ - इस परिग्रहविरमणरूप अन्तिम संवरद्वार में सूत्रकार ने सकल संयमी अपरिग्रही श्रमण के लिये यह कहा है कि वह यदि 4, देहिं " ” જિનવરેન્દ્રોએ-અધજ્ઞોની અને મનઃ પવજ્ઞાનરૂપ છદ્મસ્થ જિનામાં શ્રેષ્ઠ જે કેવલી ભગવાન છે, તેમના પણ તીર્થંકર નામકર્મના ઉદ્દયથી યુક્ત હાવાને કારણે જેઆ ઇન્દ્ર બન્યા છે એવા જિનવરેન્દ્રોએ एस " ते पुष्प, इज, मुंह, भूज आदि सर्व धान्यने " जणाणं जोणी दिट्ठां " वो સ્થાન હોવાથી ચેનિરૂપે દેખ્યાં છે. તે કારણે સકલ સંયમી જને जोणीसमुच्छिदोत्ति " જીવાની યાની રૂપ પુષ્પ, ફળ આદિના ધ્વંસ यतो नथी. " तेण हि " ते अरागे पुण्य, ई साहि समस्त धान्य उत्पत्ति “ न कप्पइ કરવો 66 वज्जेति ” ત્યાગ કરવાને समण सिंहा " सिंह समान मुनियाने माटे " યોગ્ય બતાવ્યા છે, તે તે જ કારણે તેઓ તેમને ગ્રહણ કરતાં નથી, भावार्थ --- પરિગ્રહ વિરમણુરૂપ અંતિમ સંવતદ્વારમાં સૂત્રકારે સકલ સચમી અપરિગ્રહી સાધુને માટે તે બતાવ્યુ છે. કે જો તે પોતાના મૂળશુ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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