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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् कृष्णस्ते हतवानित्यर्थः 'कंसमउडमोडगा' कंसमुकुटमोटका: कंसमुकुटसञ्चूरकाः, कृष्णो हि चाणवधानन्तरं कुपितं कंसे युयुत्सं मुकुटदेशं गृहीत्वा सिंहासनादाकृष्य मुविनिपात्य जवान । तथा 'जरासंधमाणमहणा' जरासन्धमानमथनाः जरासन्धगविनाशकाः, जरासन्धघातका इत्यर्थः, कंसवधकुपितं राजगृहनगरपति जरासन्धाभिधानं युद्धायोद्यत हतवान् । पुनः कीदृशाः ? इत्याह-'तेहि य अविरलसमसंहिय चंदमंडलसमप्पभेहिं मूरमरीइ कवयं विगिम्मुयंतेहिं सप्पडि दंडेहिं आयवत्तेहि धरिज्जतेहिं विरायंता ' तत्र 'तेहिं ' तैश्वातिशयवद्भिश्छविराजमानाः, इति सम्बन्धः कीदृशै छत्रैः ? इत्याह -अविरलसमसंहितचन्द्रमण्डलसमप्रभैः अविरलानि घनानि-घनशलाकावखात् , समानि = तुल्यानि स्थूलत्वेन दीर्घत्वेन च शलाकास्त्रियों के रिपु थे क्यों कि बाल्यावस्था में कृष्ण ने इन दोनों को मारा था, तथा ( कंसमउडमोडगा ) कृष्ण ने कंस के मुकुट को चूर २ कर दिया था-अर्थात्-चाणूर मल्ल के वध करने के अनन्तर जब कंस युद्ध करनेकी इच्छावाला हो गया तो उसे मुकुट को पकड़ कर कृष्णने सिंहासन से नीचे खेंच लिया और जमीन पर पटक कर मार डाला, इसी तरह (जरासंघमाणमहणा ) कृष्णने-राजगृह नगर के अधिपति जरासंध नाम के राजाओं को मारा हैं, कंस के वध हो जाने के बाद जय जरासंध कुपित होकर युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया था तो कृष्ण ने उसे बात की-बात में संग्राम भूमि मे नष्ट कर दिया था, तथा ( तेहिय अविरल समसंहियचंद मंडलसमप्पभेहिं सूरमरीइकवयं विणिमुयंते. हिं सप्पडिदंडेहिं आयवत्तेहिं धरिज्जंतेहिं विरायंता)जो अतिशय शाली छत्रों से विराजमान होते हैं अर्थात्-जिन छत्रों से बलदेव और वासुदेव सुशोभित होते हैं उन छात्रों की शलाईयां बहुत अधिक बनीभूत होती પૂતના નામની બે સ્ત્રીઓના દુશમન હતા અને તે કારણે બાળપણમાં તેમણે से मन्नने भारी ती, तथा “ कंसमउडमोडगा" ४० सन्। भुटना यूरे ચૂરા કરી નાખ્યા હતા. ચાણર મહલને કૃષ્ણ વધ કર્યા પછી જ્યારે કેસે કૃષ્ણ સાથે લડવાની ઈચ્છા બતાવી ત્યારે કૃષ્ણ તેને મુગટ પકડીને તેને સિંહા. સન ઉપરથી નીચે ખેંચીને જમીન ઉપર પછાડીને મારી નાખ્યો, આ રીતે " जरासंघमाणमहणा" ० २।४नाना २ सधन१५ यो હતે. કંસનો વધ થયા પછી જ્યારે જરાસંધ ફોધે ભરાઈને લડવાને તૈયાર थयो त्यारे ४० ४ घडीमा तनो रणभेहानमा वध यो उता. तथा " तेहि य अविरलसमसंहियच दमंडलसमपभेहिं सुरमरीइ कवयं विणिमुचतेहिं दडेहि बायवत्तेहिं धरिजंतेहिं विरायंता" तो घ! सनिया qui छत्राथी शोलत For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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