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सुदर्शिनीटीका अ० ४ सू०११ अध्ययनोपसंहारः
८३१ संचरितं सम्यगाचरितं, · मुप्पणिहियं ' सुप्रणिहितम् - एकाग्रतया समाराधितं ' होइ' भवति । ' इमेहिं पंचहि वि' एभिः अनुपदं प्रोक्तैपञ्चभिरपि 'कारणेहि' कारणैः भावनारूपैः, कीदृशैः कारणैरित्याह--' मणवयणकायपरिरक्खिएहिं ' मनोवचनकायपरिरक्षितैः मनोवाकायैः सम्यक समाराधितैः। कियत्कालम् ? इत्याह- णिच्चं ' नित्यं सर्वदा ' आमरणंत' आमरणान्त=मरणपर्यन्तम् ‘एसो' एषः-पूर्वोक्तो 'जोगो' योगः ब्रह्मचर्यरूपो ‘णेयव्यो' नेतव्या पालनीयः, केन ? इत्याह-'धिहमया मइमया 'धृतिमता मतिमता, कीदृशोऽयं योगः ? इत्याह-'अणासवो' अनाश्रयः ‘अकलुसो' अकलुषः । अच्छिद्दो' अच्छिद्रः 'अपरिस्साई ' अपरिसायी ' अरांकिलिलो' असंक्लिष्टः ' मुद्धो' शुद्धः 'सबमिणं ' इत्यादि।
टीकार्थ-( एवमिणं) इस प्रकार से यह (संवरस्स दारं ) चौथा ब्रह्मचर्य नामका संवरद्वार ( सम्म संचरिय) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुप्पणियिं भवइ ) स्थिर हो जाता है। इसलिये (इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं ) मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये इन पांचभावनारूप कारणों से (निच्चं ) सदा (आमरणंतं) जीवन भरतक ( एसोजोगो ) यह ब्रह्मचर्यरूप योग (णेयन्यो ) चित्त की स्वस्थता एवं हेयोपादेय की विवेकता से युक्त हुए नुनिजन को पालन करना चाहिये । क्यों कि यह ब्रह्मचर्यरूप योग ( अणासवो ) नूतनकर्मो के आगमन से रहित होने के कारण अनावरूप है, ( अकुलसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुष है, (अच्छिदो ) पाप का स्रोत
वे सूत्रा२ २ विषय उपस.२ ४२०i 3 -" एवमिणं " त्या
—" एवमिणं " 20 मारे 24 “ संवरस्स दार" याथु प्रहाय नामर्नु सवार “सम्म संचरियं " सारी रीते पापामा सावे तो "सुप्पणिहियं भवइ" स्थि२ थ य छ. " इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकाय प रिरकखिएहिं ” भन, चयन भने ४ाय, मे श्री योगयी सारी रीते सुरक्षित ४२राये। ये पांय भावना ३५ अरशथी " निच्चं" सहा आमरणत” वन पर्यन्तन! "एसो जोगो” 21 प्रह्मययं३५ योग"णेयव्यो” चित्तनी स्वस्थता भने હેપાદેયની વિક્તાપૂર્વક મુનિ જેનેએ પાળવો જોઈએ, કારણ કે આ બ્રા
३५ योग " अणासवो” नूतन भांना मागमन २हित डावाने ४ारणे अनासप छ “ अकलुसो” २५शुल मध्यवसायथी २हित पाथी म४युष छ, "अन्छिहो" पपने स्त्रोत तेनाथी छिन्न थवाने ४१२ मरि छ. "अपरिस्साई"
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