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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४सू० ५ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् सुकृतपटोत्तरीयाः पालम्ववत्= आनाभिलम्बितकण्ठिकावत् प्रलम्बमानः, तथा मुकृतः शोभनरचनाविशेषयुक्तः पटः-शाटकः उत्तरीयम् उत्तरीयवस्त्रं च येषां ते तथा रचनाविशेषेण परिधृतशाटकोत्तरीया इत्यर्थः, 'मुहियापिंगलंगुलिया' मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलिका =मुद्रिकाभिः अङ्गुलीयकैः पिङ्गलाः स्वर्णादिमयत्वात् पीतकान्तयोऽङ्गुलयो येषां ते तथा 'उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा' उज्ज्वलनेपथ्यरतिदचिल्लगविराजमानाः = उज्ज्वलं-निमलं नेपथ्य-वेषः 'पोशाक' इति प्रसिद्धःरतिदं-आनन्दजनकं 'चिल्लगं ' इति वस्त्र चाकचिक्यं, तेन विराजमानाः-शोभमानाः, तथा ' तेएण दिवाकरोवदित्ता' तेजसा दिवाकरइव दीप्ताः= प्रतापेन सूर्यसदृशाः ' सारयनवस्थणियमहुरगंभीरनिद्वघोसा' शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरस्निग्धघोषा: शारदं शरत्कालिकं यन्नवस्तनितं-नूतनमेघध्वनिः तद्वन्मधुरो गम्भीरः स्निग्धश्च हृदयाहादकरो घोपः शब्दो येषां ते तथा 'उप्पण्ण समत्तरयणचकरयणपहाणा ' उत्पन्नसमस्तरत्नचक्ररत्नप्रधाना=उत्पन्नानि प्राप्तानि मुद्दियापिंगलंगुलिया ) तथा कंठ में विविधमणियों से ग्रथित पहिरा हुआ हार जिनके वक्षस्थल पर लटकता रहता है, तथा नाभिप्रदेश पर्यंत कंठी के समान लटकते हुए उत्तरीयवस्त्रको एवं शोभन रचना विशेष से युक्त करके धोती को जो धारण करते है। स्वर्ण आदिकी बनी हुई अंगूठियों से युक्त होने के कारण जिनकी हाथों की अंगुलियां सदा पीली कांतिवाली बनी रहती हैं ( उज्जलनेवत्थ रइयचिल्लगविरायमाणा) उज्वल, आनंदजनक एवं चिलकतो हुई पोशाक से जो सदा विराजमान रहते हैं ( तेएण-दिवाकरोग्य दित्ता सारय-नवत्थणिय-महुर-गंभीरनिद्धघोसा) तथा जो अपने तेज से सूर्य के जैसे प्रतापशाली होते हैं। तथा जिनका शब्द शरत्काल के मेघ की नवीन ध्वनि के जैसा गंभीर और हृदयाह्लादक होता है (उप्पण्णसमत्तरयणचक्करयणपहाणा ) तथा ડોકમાં પહેરેલી હોય છે અને વક્ષસ્થળ પર લટકતે હોય છે. તથા નાભિપ્રદેશ સુધી કહીની જેમ લટકતાં ઉત્તરીય વસ્ત્રોને તથા સુંદર વિશિષ્ટ રચનાથી યુક્ત છેતીને જેઓ ધારણ કરે છે, સુવર્ણ આદિમાંથી બનાવેલી વીંટીઓથી યુક્ત હોવાને લીધે જેમનાં હાથની આંગળીઓ સદા પીળા તેજથી યુક્ત २ छ, “ उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा " Gor/qI, ' मानाय भने या पाषाथी या सहशमी २ डाय छ, “तेएण--दिवाकरोव्वदित्ता सारय-नवत्थणिय-महुर-गंभीर-निद्धघोसा" तथा रे पोताना तेथी सूर्य સમાન પ્રતાપશાળી હોય છે, તથા જેમના શબ્દ શરદઋતુના મેઘના નવીન पनिनावी गली२ मने हत्यमा मान ६ अन्न ४२नार डाय छ, “ उप्पण्ण For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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