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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 41 ६२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे ते अनन्ता अपि जीवास्तथाविधकर्मोदयसामर्थ्यात् समकमेवोत्पत्तिदेशमधिवसन्ति, सममेव तच्छरीरमाश्रिताः पर्याप्तं समारभन्ते, समकमेव पर्याप्ताः भवन्ति । समकमेव च प्राणापानादि योग्य पुद्गलान् गृह्णन्ति । यच्च - एकस्य जीवस्याहारयोग्यपुलोपादानं तदेवान्येषामनन्तानामपि भवतीति । 'अनंते' अनन्तान् 'अविजाणओ' विजानतः = एते घातका अस्मान् हनिष्यन्ति ' इति ज्ञानविकलान् एकेन्द्रियान् 'परिजाणओ य' परिजानतश्च स्ववधदुःखमनुभवतश्च द्वीन्द्रियादीन् 'जीवे' जीवान् 'इमेहिं' एभिः = अनुपदं वक्ष्यमाणैः 'विविहेहि' विविधैः नानाप्रकारै: 'कारणेहिं' कारणैः = प्रयोजनैः 'इति' घ्नन्ति येषां घातं कुर्वन्तीत्यर्थः । किं ते? कानि तानि पृथिव्यादि - हिंसायाः कारणानि ? इत्याह- 'करिसणे 'त्यादिना ॥ सू० १३|| स्पति कायिक होते हैं। ये जीव तथाविध कर्मोदयों के वश से एक साथ ही उत्पत्ति देश में रहते हैं, एकसाथ ही इनकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होती है । इस तरह एक ही साथ पर्याप्त होकर अनंत जीव एक ही साथ प्राणापानादि योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। इनमें जो एक जीव का आहार होता है वही अन्य अनंत जीवों का भी होता है । इस तरह के ( अनंते) अनंत साधारण जीवों को कि- (अविजाणओ ) " जो यह नहीं जानते हैं कि ये घातक जन हमे मारेंगे " इस प्रकार के ज्ञान से विकल हो रहे हैं ऐसे एकेन्द्रिय जीवों को, तथा ( परिजाणओ य जीवे) जो अपने वधादि संबंधी दुःखों को जानते हैं, ऐसे दीन्द्रियादिक जीवों को, (इमेहिं ) इन अनुपद वक्ष्यमाण (विविहेर्हि) नाना प्रकार के ( कारणेहिं ) प्रयोजनों से ( हणंति) मारते हैं । (किंते ) वे पृथिव्यादि की हिंसा के कारण कोनर हैं ? वह 'करिसण ' इत्यादि अगले सूत्र से कहते हैं । પ્રકારના દયને કારણે એક સાથે જ ઉત્પત્તિ દેશમાં રહે છે, એક સાથે જ તેમની શરીર-પર્યાપ્તિ પૂર્ણ થાય છે. એ રીતે એક સાથે જ પર્યાપ્ત થઇને તે અનંત જીવ એક સાથે જ પ્રાણાપાનાતિ પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે. તેઓમાં એક જીવને જે આહાર હાય છે તે જ આહાર અન્ય અનત જીવાના પણ હાય છે. આ " अणते " अनंत साधारण भवने - " अविजाणओ " " ने ते नथी જાણતાં કે એ ઘાતક લેાકા અમને મારી નાખશે ” એ પ્રકારના જ્ઞાનથી જે रडित छे मेवा मेडेन्द्रिय भवाने, तथा " परिजाणओ य जीवे " ? पोताना वधाहि संधी हुःयोने लगे छे सेवा द्वीन्द्रिय साहि लवोने, “इमेहि' माहवे छीना होस दर्शावेद्य “ विविहेहि " विविध प्रानां "कारेणहि ' प्रयोन्नोथी “हणंति” भारे छे. " किते ?” ते पृथ्वीभय आहिनी हिसानां म्यां यां ५२]। छे, ते “करिसण ” इत्यादि हुवे पछीना सूत्र द्वारा उडेवामां आवे छे. 22 For Private And Personal Use Only "
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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