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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ० १ सू०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् =दीनतावर्जितः । अकलुणे' आरुणः व्यगृत्तिरहितः, 'अविसाई ' अविषादी 'भिक्षालाभो भविष्यति न वे 'त्यादि विषादवनितः, तथा-' अपरितंतजोगी' अपरितान्तयोगी-अलाभादिषु तन्तनाादि शब्दवर्जितः, तथा-'जयणघडण करण चरिय विनयगुणजोगसंपउत्ते ' यतन घटनकरणचरितविनयगुणयोगसंप्रयुक्तः, तत्र यतनं-प्राप्तेषु संयमयोगेषु उद्यमः, घटनं अप्राप्ति संजन-योगमाप्तिचेष्टनम् , एतद्वयं कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा-चरितः सेवितो विनयो येन स चरितविनयः, तथा गुणयोगेन=समाधिगुणयोगेन संप्रयुक्तो यः सः-गुणयोग संप्रयुक्तः, एतेषां कर्मधारयः, एतादृशो - भिक्खू ' भिक्षुः-साधुः ‘भिक्खेसणाए' प्रति उसे प्रकटित नहीं होना चाहिये । (अदीणे ) अदीन होना चाहिये दीनता के भाव से रहित रहना चाहिये अपने व्यवहार से दाता के प्रति उसे दीनता का भाव प्रकट नहीं करना चाहिये । ( अकलुणे ) अकरुण-ओछीवृत्ति से रहित होना चाहिये। उमकी वृत्ति ऐसी न हो कि जिस से वह दाता के दृष्टि में ओछी प्रतीत हो । ( अविसाई) विषाद से उसे रहित होना चाहिये-भिक्षा का लाभ होगा या नहीं होगा इस प्रकार का विषाद उसे नहीं करना चाहिये । (अप. रितंतजोंगी) अपरितांतयोगी-अलाभ आदि की अवस्था में उसे तनतनाट नहीं करना चाहिये । ( जयण-रडण-करण-चरिय विनयगुणजोगसंपउत्ते ) प्राप्त संयमयोग में उद्यम करना इसका नाम यतन है इस यतन को तथा अप्राप्त संयमयोग को प्राप्ति में चेष्ठा करना इसका नाम घटन है, इस बटन को जो करने वाला है वह यतन घटन करण है तथा विनयगुण को पहिले से जिसने आचरित किया है एवं समाधिनये नाही. “ अदीणे " महीन २३ नो-हीनताना माथी २डित २२७ જોઈએ-પિતાના વ્યવહારથી દાતા આગળ તેણે દીનતાનો ભાવ પ્રગટ કરે नये नाही. " अकलणे" ५४२।७५-छी वृत्तिकी २डित य श., तेनी वृत्ति मेवी नावाने हातानी दृष्टि साछी एय, "अविसाई" તેણે વિષાદ રહિત રહેવું જોઈએ. ભિક્ષાલાભ મળશે કે નહીં એવો વિષાદ तणे ४२३ मध्ये नाही. “ अपरितंतजोगी" परततयोगी-मसाल माहि अवस्थामा पए तरी तनतनाट न वो नये. " जयण, घडण-करण-चरिय -विनयजोगसंप उत्ते" आत सयम योगमा यम ४२३॥ तेने 'यतन' डे छ. या यतनने तथा अप्रास सयम योगनी प्रतिनी शेष्टा ४२वी तेने धटन४९ छे. घटनने रे ४२नार छे ते यतनघटनकरण छ. तथा विनयगुणने પહેલેથી જ જેમણે આચર્યો છે તથા સમાધિગુણના રોગથી જે યુક્ત બનેલ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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