SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे सुखजनका, 'बहुदुक्खो ' बहूदुःख दुःखबहुलः ' महन्भओ' महाभयः महाभयजनकः 'बहुरयप्पगाढो' बहुरजः प्रगाढायचुरकर्मरजोभिः सम्भृतः 'दारुणो' दारुणः भीषणः 'ककसो' कर्कशः कठोरः ' असाओ' अशात: असुखोऽशातकर्मवेदनीयस्वरूपः इत्येवंविधफलविपाकः 'वाससहस्सेहिं' वर्षसहस्रः-पल्यो. पमसागरप्रमाणकालैः 'मुच्चइ ' मुच्यते-क्षीयते । तदेव व्यतिरेकमुखेनाह-'नय' न च तं फल-विपाकम् , ' अवेयइत्ता' अवेदयित्वा = अनुपभुज्य उपभोगं विनेत्यर्थः 'हु ' निश्चयेन ' मोक्खो' मोक्षः ‘अत्थि' अस्ति 'त्ति' इति शब्दः समाप्ति सूचकः । एतस्यार्थस्य साक्षात्ममाणभूतपरमात्मप्रतिपादितत्वेन प्रमाणयन्नाह-- 'एवमाइंसु ' इत्यादि। एचम्-उक्तरीत्या ' आहेसु ' ऊचुः ऋषभादि तीर्थङ्करगणधरादय । तथा केवल आपातमात्र सुख जनक है । (बहु दुक्खो ) जीवों के इससे वास्तविक सुख नहीं मिलता है किन्तु भयंकर से भयंकर दुःखो का ही यह प्रदाता है । ( बहुम्भओ) यह महा भयजनक है (बहुरयप्पगाढ़ो) प्रचुर कर्म रूपी रज से यह भरा हुआ है। ( दारुणो) बड़ा भीषण है । ( कक्कसो) कठोर है । ( असाओ) अशात कर्म वेदनीय स्वरूप है । इस तरह का यह फलविपाक ( वाससहस्सेहिं ) हजारों वर्षों में अर्थात् पल्योपम तथा सागरोपर प्रमाणकाल में ( मुच्चइ ) छूटता है । ( न य अवेयइत्ता हु मोक्खो अस्थि त्ति) विना इसका फल भोगे जीव इससे मुक्त नहीं होता है । इस अर्थ में प्रमाणता प्रतिपादन करने के लिये सूत्रकारइसमें साक्षात्प्रमाणभूतपरमात्म के द्वारा प्रतिपादितता प्रकट करते है, वे कहते हैं- ( एवमासु ) ऋषभ आदि ते ३८३५ . " अप्पसुहो" वक्ष सुमन छ. " बहुदुक्खो" અને તેનાથી વાસ્તવિક સુખ મળતું નથી, પણ તે ભયંકરમાં ભયંકર । ना२ छे. " बहुम्भओ" ते महा लय छ, “ बहुरयप्पगाढो” विधुर अभी २०४थी ते पूरी छ, “ दारुणो" भाष९ छ, “ कक्कसो" डोर छ, “असाओ ,, मतभवनीय २१३५ छे. या प्रा२नी मा विना " वाससहस्सेहि" । वर्षे मेटले पक्ष्यायम तथा सागरोयम प्रभार अणे छूटे छे. "नय अवेयइत्ता हु मोक्खो अस्थि ति" तेनुंण मागच्या વિના જીવ તેનાથી મુક્ત થતાં નથી. તે અર્થમાં પ્રમાણ ભૂતના પ્રતિપાદિત કરવાને માટે સૂત્રકાર તેમાં સાક્ષાત પ્રમાણભૂત પરમાત્મા દ્વારા પ્રતિપાદિતતા પ્રગટ કરે છે. તેઓ કહે છે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy